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________________ सत्तमो भवो। ६४५ एसा जीवलोयदिइ ति। परिच्चयउ विसायं देवो। पयापरिरक्खणं पि फलं चेव महापुरिसाणं ति । कुमारेण भणियं-अज्ज, सपुण्णपरिरक्खियाओ धन्नाओ पयाओ। एत्थंतरम्मि कुओइ कुमारवुत्तं आयण्णिय 'महापुरिसो खु एसो, उचिओ संजमधुराए, कयं च ण निरत्थयं अहिगरणं; ता उद्धरेमि एवं संसाराओ' ति करुणापवन्नहियओ परियरिओ अणेयसाहहि समागओ कुमारस्स चुल्लबप्पो हरिसेणायरिओ ति। ठिओ नट्ठसोए काणणे। विन्नाओ लोएण, जहा एसो भयवं हरिसेणरायरिसि ति। सवणपरंपराए य समागओ लोयपउत्तिपरियाणणापउत्ताणं सवणगोयरं । गवेसिओहि जाव दिटो त्ति । तओ निवेइयं पडिहारीए, तीए वि य कुमारसेणस्स। हरिसिओ कुमारो। विइन्नं पारिओसियं पडिहारीए निउत्तपुरिसाण य। भणिओ णेण अमरगरू-अज्ज, अणब्भा अमयवट्ठी तायागमणं । तेण भणियं-देव, धन्नो तुम, भायणं कल्लाणाणं । कुमारेण भणियं-ता एहि, वंदामि तायं, करेमि सफलं जीवलोयं ति । अमच्चेण भणियं-जं देवो आणवेइ । गओ नट्ठसोयं काणणं । दिट्टो य णेण सारओदयं विय विसुद्धचित्तो विरहिओ मोहतिमिरेणं राज्येनेति । अमात्येन भणितम् -एवमेतद्, तथाप्येषा जीवलोकस्थिरिति । परित्यजतु विषादं देवः । प्रजापरिरक्षणमपि फलमेव महापुरुषाणामिति । कुमारेण भणितम् -- आर्य ! स्वपुण्यपरिरक्षिता धन्याः प्रजाः। __अत्रान्तरे कुतश्चित् कुमारवृत्तान्तमाकर्ण्य 'महापुरुष: खल्वेषः, उचितः संयमधुरः, कृतं च तेन निरर्थकमधिकरणम्, तत उद्धराम्येतं संसाराद्' इति करुणाप्रपन्नहृदयः परिवृतोऽनेकसाधुभिः समागतः कुमारस्य लघुपिता (पितृव्यः) हरिषेणाचार्य इति । स्थितो नष्टशोके कानने। विज्ञातो लोकेन, यथैष भगवान् हरिषेणराजर्षिरिति । श्रवणपरम्परया च समागतो लोकप्रवृत्तिपरिज्ञानप्रयुक्तानां श्रवणगोचरम् । गवेषितस्तैर्यावद् दृष्ट इति । ततो निवेदितं प्रतीहार्या, तयापि च कुमारसेनस्य । हृषितः कुमारः । वितीर्ण पारितोषिकं प्रतीहार्या नियुक्तपुरुषाणां च । भणितस्तेनामरगुरुः---- आर्य ! अनभ्रा अमृतवृष्टिस्तातागमनम् । तेन भणितम्-देव ! धन्यस्त्वम्, भाजनं कल्याणानाम् । कुमारेण भणितम् - तत एहि, वन्दे तातम्, करोमि सफलं जीवलोकमिति । अमात्येन भणितम् -यदेव आज्ञापयति । गतो नष्टशोकं काननम् । दृष्टस्तेन शारदोदकमिव विशुद्धचित्तो विरहितो है, फिर भी यह संसार की स्थिति है। महाराज विषाद छोड़ें। प्रजा की रक्षा भी महापुरुषों का फल ही है।' कुमार ने कहा-'आर्य ! अपने ही पुण्यों से रक्षित प्रजा धन्य है।' इसी बीच कहीं से कुमार के वृत्तान्त को सुनकर 'यह महापुरुष है, संयम का भार धारण करने के योग्य है। उसने निरर्थक निर्णय किया है, अत: उसे संसार से निकालता हूँ- इस प्रकार करुणा से पूर्ण हृदयवाले चाचा हरिषेणाचार्य अनेक साधुओं के साथ कुमार के पास आये। नष्टशोक नामक उद्यान में ठहर गये। लोगों को ज्ञात हुआ कि ये भगवान् हरिषेण राजर्षि हैं । लोक की प्रवृत्ति की जानकारी के लिए प्रयुक्त लोगों के कान में यह बात श्रवण-परम्परा से आयी । उन्होंने राजर्षि की खोज की और उनके दर्शन किये । अनन्तर प्रतीहारी से निवेदन किया। प्रतीहारी ने भी कुमारसेन से निवेदन किया। कुमार हर्षित हुआ । प्रतीहारी तथा नियुक्त पुरुषों को पारितोषिक दिया। कुमार ने अमरगुरु से कहा-'आर्य! चाचा जी का आगमन बिन बादल वर्षा के समान है ।' अमरगुरु ने कहा-'महाराज ! आप धन्य हैं, कल्याणों के पात्र हैं।' कुमार ने कहा-'तो आओ, तात की वन्दना करें, संसार को सफल बनायें ।' मन्त्री ने कहा- 'जो महाराज की आज्ञा ।' कुमार नष्टशोक उद्यान में गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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