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________________ ६४६ | समराइच्चकहा संगओ नाणसंपयाए निरइयारवंभयारी परिणओ सुद्धभावणाहि संखविसेसो विय निरंजणो अपडिबद्धो उभयलोएसं निदंसणं धम्मनिरयाणं चितामणी सिस्सवग्गस्स मुत्तिमंतो विय मुत्तिमग्गो भयवं हरिसेणायरिओ त्ति। वंदिओ अच्चंतसोहणं झाणमणुहवंतेणं कुमारेणं । धम्मलाहिओ य जेणं । तओ भयवंतमवलोइऊण रोमंचिओ कुमारो। समागयं आणंदबाहं । भणिओ य भयवया-वच्छ, भावधम्मो विय सयलचेटासुंदरो तुम, जेण तुह निग्गमणनिव्वेयाइसएण मए पत्तं समणत्तणं। उवाएयं च एयं पयइनिग्गणे संसारवासम्मि, न पुण किंचि अन्नं। किलेसायासबहुलं खु मणुयाण जीवियं । संपयासंपायणथं पि आहोपुरिसियापायं निरत्थयमण्टाणं, जेण परपीडायरी दुहावहा संपया। अयंडमणोरहभंगसंपायणुज्जओ पहवइ विणिज्जियसुरासुरो मच्चू। बहुयाणत्थफलं चेव थेवं पि पमायचेट्ठियं । एत्थ सुगिहीयनामधेयगुरुसाहियं मे सुणसु वत्तयं ति। ____ अस्थि इहेव जम्बुद्दीवे दोवे भारहे वासे उत्तरावहे विसए वद्धणाउरं नाम नयरं, अजियवद्धणो मोहतिमिरेण सङ्गतो ज्ञानसम्पदा निरतिचारब्रह्मचारी परिणतः शुद्धभावनाभिः शङ्गविशेष इव निरञ्जनोऽप्रतिबद्ध उभयलोकेषु निदर्शनं धर्मनिरतानां चिन्तामणिः शिष्यवर्गस्य मूर्तिमानिव मुक्तिमार्गो भगवान् हरिषेणाचार्य इति । वन्दितोऽत्यन्तशोभनं ध्यानमनुभवता कुमारेण । धर्मलाभितश्च तेन । ततो भगवन्तमवलोक्य रोमाञ्चितः कुमारः। समागत आनन्दवाष्पः । भणितश्च भगवतावत्स ! भावधर्म इव सकलचेष्टासुन्दरस्त्वम्, येन तव निर्गमननिर्वेदातिशयेन मया प्राप्तं श्रमणत्वम् । उपादेयं चैतत् प्रकृतिनिर्गुणे संसारवासे, न पुनः किञ्चिदन्यद् । क्लेशायासबहुलं खलु मनुजानां जीवितम् । सम्पत्सम्पादनार्थम प आहोपुरुषिकाप्रायं निरर्थकमनुष्ठानम्, येन परपीडाकरी दुःखावहा सम्पद् । अकाण्डमनोरथभङ्गसम्पादनोद्यतः प्रभवति विनिजितसुरासुरो मृत्युः। बहुकानर्थफलमेव स्तोकमपि प्रमादचेष्टितम् । अत्र सुगृहीतनामधेयगुरुकथितं मे शृणु वृत्तमिति । अस्तीहैव जम्बूद्वीपे भारते वर्षे उत्तरापथे विषये वर्धनापुरं नाम नगरम् । अजितवर्धनो राजा। उसने भगवान् हरिषेणाचार्य को देखा। वे शरत्कालीन जल के समान विशुद्धचित्त थे, मोहान्धकार से रहित थे, ज्ञानसम्पत्ति से युक्त थे, अविचार रहित ब्रह्मचर्य का पालन कर रहे थे, शुद्ध भावनाओं में परिणत थे, शंख विशेष के समान निरंजन थे, दोनों लोकों से मुक्त थे, धर्म में रत हुए लोगों के उदाहरण थे, शिष्यवर्ग के लिए चिन्तामणि रत्न के समान थे, मानो शरीरधारी मुक्तिमार्ग थे। अत्यन्त शुभध्यान का अनुभव करते हुए कुमार ने वन्दना की। राजर्षि ने धर्मलाभ दिया । अनन्तर भगवान् को देखकर कुमार अत्यन्त रोमांचित हुए, आनन्द के आँसू आ गये । भगवान् ने कहा-'वत्स ! भावधर्म के समान समस्त चेष्टाओं में तुम सुन्दर हो, जिससे तुम्हारे निकलने के दुःख की अधिकता से मैंने श्रमण धर्म पाया। स्वभाव से निर्गुण इस संसार-वास में यही उपादेय (ग्रहण करने योग्य) है, अन्य कुछ उपादेय नहीं है। निश्चित रूप से मनुष्यों के जीवन में क्लेश और परिश्रम की बहुलता है। सम्पत्ति की प्राप्ति के लिए प्रायःकर भभिमान से भरा हुआ कार्य निरर्थक है, क्योंकि सम्पत्ति दूसरों को पीड़ा देनेवाली और दुःख लानेवाली है। असमय में मनोरथ को नष्ट करने के लिए उद्यत मृत्यु सुर और असुरों को भी जीतने में समर्थ है। बोड़ा भी प्रमादभरा कार्य अत्यधिक अनर्थरूप फल देनेवाला होता है । इस विषय में सुगृहीत नामबाले गुरु के द्वारा कहा हुआ वृत्तान्त सुनो इसी जम्बूद्वीप के भारतवर्ष द्वीप में उत्तरापथ देश में 'वर्धनापुर' नामक नगर है। वहाँ का राजा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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