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________________ [ समराइच्च कहा सत्थवाहपुत्त कालसेणसबरेह् ि। बद्धो वल्लिरज्जूए । पयट्टाविओ समहिलिओ चेव चडियाययणं । ओ थेवं भूमिभागं । दिट्ठ च णेण चंडियायणपासमंडलं । कीइसं । परिसडिय जिष्ण रुवखगुद्दे हियखइयक संघाय संकुलं भुयंगमिहुणसणाहवियडवम्मीयं परत्तमुहलसउणगणकयवमालं वियडतरुखंधबहलरुहिरायड्डियतिसूलसंघायं पायवसाहावबद्ध म हिस मेस मुहपुच्छखुरसिंगसिरोहराचीरनिवहं ति । अवि य - ४६० वायरस उतसंवलिय गिद्धवंद्रे हि विष्फुरंतेहि । पडिबद्धसूरकिरणं करंककलियं मसाणं व ॥ ५१२ ॥ भूयजक्खरक्ख सविसाय संजणियहिययपरिओसं । रुहिर बलिखित्तपसमियनिस्से सधरारउग्घायं ॥ ५१३ ॥ तं च एव गुणा हिरामं चंडियाययणपासमंडलं सभयं वोलिऊण आययणं पेच्छिउं पयत्तो । धवलवरन रकलेवरवित्थिष्णुत्तुंगघडियपायारं । उभडक बंध विरइयतोरणपडिबद्ध सिरमालं ॥ ५१४।। सार्थवाहपुत्रः कालसेनशबरैः । बद्धो वल्लिरज्ज्वा । प्रवर्तितः समहिलिक एव चण्डिकायतनम् । गतः स्तोकं भूमिभागम् । दृष्टं च तेन चण्डिकायतनपार्श्वमण्डलम् । कीदृशम् । परिशटितजीर्णवृक्षगोद्देहिकाखादितकाष्ठसंघातसंकुलं भुजगमिथुनसनाथविकटवल्मीकं प्रखतमुखर शकुन गणकृत ( वमाल ) - कोलाहलं विकट तरुस्कन्धवहल रुधिराकृष्टशूल संघातं पादपशाखावबद्धमहिषमेषमुखपुच्छखुरशृङ्गशिरोधराचीरनिवहमिति । अपि च वायस शकुन्तसंवलितगृध्रवन्द्रैविस्फुरद्भिः । प्रतिबद्ध सूर्यकिरणं करङ्ककलितं श्मशानमिव ॥ ५९२ ॥ ग्रहभूतयक्ष राक्षस पिशाचसंजनितहृदयपरितोषम् । रुधिरबलिक्षिप्त प्रशमितनिःशेषधरारजउद्घातम् (समूहम् ) ॥५१३॥ तं चैवंगुणाभिरामं चण्डिकायतनपार्श्वमण्डलं सभयं व्यतिक्रम्यायतनं प्रेक्षितुं प्रवृत्तः । धवलवरनरकलेवरविस्तीर्णोत्तुङ्गघटितप्राकारम् । उद्भटकबन्धविरचिततोरणप्रतिबद्धशिरोमालम् ॥ ५१४॥ कालसेन के शबरों ने सार्थबाहपुत्र को पकड़ लिया। ( उसे ) लताओं की रस्सी से बाँधा । पत्नी के साथ ही चण्डीदेवी के मन्दिर की ओर चल पड़े। थोड़ी दूर गये । उसने चण्डिका मन्दिर की समीपवर्ती भूमि देखी । ( वह भूमि ) कैसी थी ? जिसे गोह ने खाया है ऐसे सुगन्धित जीर्ण वृक्ष की लकड़ियों के समूह से व्याप्त, सर्पयुगल से युक्त, जहाँ भयंकर बाँवी लगी हुई थी, मनोहर शब्द करनेवाले पक्षियों द्वारा जहाँ कोलाहल किया जा रहा था, बड़े-बड़े वृक्षों के तनों से जो व्याप्त था, जहाँ त्रिशूलों द्वारा रुधिर निकाला जा रहा था, घृक्षों की शाखाओं में जहाँ भैंसे और बकरों के मुख, पूँछ, सींग, गर्दन लटके हुए थे । और भी - शब्द करते हुए कौओं से युक्त गृद्धसमूह से जहाँ सूर्य की किरणें अवरुद्ध हो रही थीं तथा हड्डी की ठठरियों से जो युक्त था ऐसे श्मशान के समान ग्रह, भूत, यक्ष, राक्षस और पिशाचों से जहाँ हृदय में संतोष उत्पन्न हो रहा था, रुधिर की बलि के फैंके जाने से जहाँ पृथ्वी के समस्त रजःकण शान्त, स्थिर व प्रतिबद्ध हो गये थे— इस प्रकार के गुणों से सुन्दर चण्डिकामन्दिर की समीपवर्ती भूमि को भयपूर्वक पार कर मन्दिर को देखने के लिए प्रवृत्त हुआ । अच्छे लक्षणोंवाले मनुष्यों के शरीर से जहाँ दीवार के किनारे ऊँचे-ऊँचे ढेर लग गये थे, प्रचण्ड धड़ों से निर्मित तोरण में जहाँ शिरोमालाएँ पहनाई गई थीं; ॥ ५१२-५१४ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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