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________________ अट्ठमो भवो] ७७५ निरत्थियाए अहोपुरिसियाए अवियारिऊण परमत्थं, अणालोचिऊण आयइं, अपोच्छऊण तस्स मंगुरत्तं, माइंदयालविब्भमे तम्मि असइ पत्ते दि अपरिचिए अवयारए नियमेण अच्चंतगिद्धो सपरावयारए ति । रहिओ य णेणं, जहा इमो सरिया पयइभावे वट्टमाणी सोहणा, तहा पुरिसो वि विज्जमाणे विवेए निरत्थयपरिकिलेसरहिओ संगओ सुद्धासएण वज्जिओ पावमित्तेहि जीवलोओवयारोवभोयसंपायणसमत्थो हवइ, अविज्जमाणे अवायगमणपडिबधे बज्झविहववित्थरभावो उण विवेइणो वि महंतं परलोयंतरायं निबंधणं मिच्छाहिमाणस्स उच्छायणं चित्तनिव्वईए संपायणं परिकिलेसाण पणासणं नाणपरिणईए वेरियं संतोसामयस्स बंधवं असव्ववसायाणं अयाणयं वियंभसुहस्स वियाणयं कवडनीईणं वज्जियं कुसलजोएण संगयं पावाणुमईए। तहा जइ वि केसिंचि दव्वोबयारसंपायणसमत्थमेयं, तहावि तरो; तमो न अन्नपीडाए विणा परमत्थओ सो वि संभवई। पहाणो य भावोवयारो न यापरिचत्तारंभपरिग्गहो सव्वहा तं संपाडेइ। जुत्तं च मणुयभावे तस्स संपायणं, किमन्नेण निरत्यएणं ति । चितयंतस्स समुप्पन्नो सयलदुक्खविउडणेक्कपच्चलो कुसलपरिणामो। कयाऽऽहोपुरुषिकयाऽविचार्य परमार्थमनालोव्यायतिम्, अप्रेक्ष्य तस्य भङ गुरत्वम्:, मायेन्द्रजालविभ्रमे तस्मिन्नसकृत् प्राप्तेऽपि अपरिचितेऽपकारके नियमेनात्यन्तगृद्धः स्वपरापकारक इति । रहितश्च तेन यथेयं सरित् प्रकृतिभावे वर्तमाना शोभना, तथा पुरुषोऽपि विद्यमाने विवेके निरर्थकपरिक्लेशरहितः संगतः शद्ध शयेन वजितः पापमित्रैर्जीवलोकोपकारोपभोगसम्पादनसमर्थो भवति, अविद्यमानेऽपायगमनप्रतिबन्धेः बाह्यविभवविस्तारभावः पुनविवेकिनोऽपि महान् परलोकान्तरायः, निबन्धनं मिथ्याभिमानस्य उच्छादनं चित्तनिर्वतेः, सम्पादन परिक्लेशानां, प्रण शनं ज्ञानपरिणतेः, वैरिकः सन्तोषामृतस्य, बान्धवोऽसद्व्यवसायानाम् , अज्ञायको विश्रम्भसुखस्य, विज्ञायकः कपटनीतीनाम, वजितः कूशनयोगेन, संगतः पापानुमत्या । तथा यद्यपि केषांचिद् द्रव्योपकारसम्पादनसमर्थमेतद, तथापीत्वरः, ततो नान्यपीडया विना परमार्थतः सोऽपि सम्भवति । प्रधानश्च भावोपकारः, न चापरित्यक्तारम्भपरिग्रहः सर्वथा तं सपादयति । युक्तं च मनुजभावे तस्य सम्पादनम् । किमन्येन निरर्थके नेति । चिन्तयतः समुत्पन्नः सकलदुःविकुटनैकप्रत्यलः कुशलपरिणामः । प्रवर्धमान शुभपरिणामश्च उन्मादरूपी तरंगों से सेवित होता है, कर्तव्य की मर्यादा को छोड़ देता है । इस प्रकार महामोहरूपी भंवरों के मध्य में होकर निरर्थक अभिमान के कारण परमार्थ का विचार न कर, भावीफल का विचार न कर, उसकी नश्वरता को न देख, मायामयी इन्द्रजाल के सदृश भ्रमरूप उस फल को बार-बार प्राप्त करता है, फिर भी उसके अपकार से अपरिचित हो, नियम से अत्यन्त आसक्त हुआ अपना और दूसरे का अपकारी होता है । विस्तार से रहित जैसे यह नदी स्वाभाविक स्थिति में विद्यमान होकर सुन्दर है, उसी प्रकार पुरुष विवेक के विद्यमान होने पर निरर्थक क्लेश से रहित हो, शुद्ध आशय से युक्त हो, पापी मित्रों से रहित हो संसार के उपकार और उपभोग का सम्पादन करने में समर्थ होता है । बाह्य वैभव के विस्तार के भावरूपी सर्वनाश पर प्रतिबन्ध न होने से विवेकी व्यक्ति के भी परलोक (-गमन) में बहुत बड़ा विघ्न होता है, मिथ्या अभिमान का बन्धन होता है, चित्त की शान्ति का नाश होता है, क्लेशों का सम्पादन होता है, ज्ञानरूप फल का विनाश होता है । वह सन्तोष रूपी अमृत का वैरी हो जाता है, असत्कर्मों का बन्धु बन जाता है, विश्वास रूप सुख को न जाननेवाला हो जाता है, कपटनीतियों का जानकार होता है, शुभयोग से रहित होता है और पाप की अनुमति से युक्त होता है। यद्यपि किन्हीं-किन्हीं को धन आदि देकर उपकार करने में यह समर्थ होता है, तथापि निष्ठुर होता है, अतः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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