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[ समराइच्चकहा
पवड्ढमाणसुहपरिणामोय नियत्तो राया । साहिओ णेण एस वइयरो रयणवईसहियाण मंतीणं । भणियं च हिं- देव, एवमेयं, न अन्नह त्ति । करेउ समीहियं देवो । अलं एत्थ कालक्खेवेण । अइचंचला जीवलोfoई, मुहुत्तमेतं पिय तं पसंमिज्जए जं परमत्थसाहणपराणं । तओ 'किच्चमेयं' ति चितिऊण राइणा दवावियमाघोसणापुव्वयं महादाणं, काराविया सव्वाग्रयणेसु पूया, सम्माणियाओ पयाओ, निवेसिओ रज्जे धिइबलो ।
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तओ य पउत्तिपुरिसेहितो कासिया विसयसंठियं वियाणिऊण भयवंतं विजयधम्मायरियं पहाणसामंतामच्च संगओ समं रयणवईए पयट्टो गुरुसमीवं राया । पत्तो कालक्कमेण । दिट्ठो वाणारसोयरसंठओ भयवं विजयधम्मो । वदिओ पहदुवयणकमलेणं । धम्मलाहिओ गुरुणा, पुच्छिओ आगमणपओयणं । साहियं राइणा । परितुट्ठो गुरू, उवबूहिओ य णेण । तओ पसत्थेण तिहिकरणमुहुत्त जोएण वाणारसीनयरिसामणा संपाडियमहादव्वोवयारो समं पुव्वभणियपरियणेणं महाविभू विज्झमाणण परिणामेण संजायचरणपरिणामो पव्वइओ राया ।
निवृत्तो राजा । कथितस्तेनैष व्यतिकरो रत्नवतीसहिताना मन्त्रिणाम् । भाणतं च तै:- देव ! एवमेतद्, नान्यथेति । करोतु समीहित देवः । अलमत्र वालक्षेपेण । अतिचञ्चल, जीवलोकस्थितिः, मुहूर्त मात्रमपि च तत् प्रशस्यते यत् परमार्थसाधनपराणाम् । ततः 'कृत्यमेतद्' इति चिन्तयित्वा राज्ञा दापितमा घोषणा पूर्वकं महादानम्, कारिता सर्वायतनेषु पूजा, सन्मानिताः प्रजाः, निवेशितो राज्ये धृतिबलः ।
ततश्च प्रवृत्तिपुरुषैः काशीविषयसंस्थितं विज्ञाय भगवन्तं विजयधर्माचार्यं प्रधानसामन्तामात्यसङ्गतः समं रत्नवत्या प्रवृत्तो गुरुसमीपं राजा ! प्राप्तः कालक्रमेण । दृष्टो वाराणसीनगरीसंस्थितो भगवान् विजयधर्मः । वन्दितः प्रहृष्टवदनकमलेन । धर्मलाभितो गुरुणा, पृष्ट आगमनप्रयोजनम् । कथितं राज्ञा । परितुष्टो गुरुः । उपबृंहितश्चानेन । ततः प्रशस्तेन तिथिकरण मुहूर्तयोगेन वाराणसीन गरी स्वामिना सम्पादितमहा द्रव्योपचारः समं पूर्वभणितपरि अनेन महाविभूत्या विशुध्यमानेन परिणामेन सञ्जातचरणपरिणामः प्रव्रजितो राजा ।
दूसरे को पीड़ा दिये बिना वह उपकार भी सम्भव नहीं होता है। भाव उपकार ही प्रधान है अतः बिना आरम्भ और परिग्रह का त्याग किये सब प्रकार उसका सम्पादन नहीं करता है, जबकि मनुष्यत्व में उसका सम्पादन करना युक्त है, अन्य निरर्थक से क्या । ऐसा विचार करते हुए ( उसके ) समस्त दुःखों को नष्ट करने में एकमात्र समर्थ शुभ परिणाम उत्पन्न हुआ । बढ़े हुए शुभ परिणामोंवाला यह राजा वहाँ से लौट आया। उसने इस घटना को रत्नवती सहित मन्त्रियों से कहा । उन्होंने कहा - 'महाराज ! यह सही है, अन्यथा नहीं है । महाराज इष्टकार्य करें । इस विषय में विलम्ब न करें ।' संसार की स्थिति अत्यन्त चंवल हैं, परमार्थ-साधन में रत हैं, उनको प्रशस्त होती है । अतः यह करणीय है - ऐसा सोचकर महादान दिलाया, सभी आयतनों में पूजा करायी, प्रजाओं का सम्मान किया, राज्य पर धृतिबल को बैठाया ।
मुहूर्तमात्र के लिए भी जो राजा ने घोषणा कराकर
अनन्तर गुप्तचरों से भगवान् विजयधर्माचार्य को काशी देश में स्थित जानकर प्रधान सामन्त, मन्त्री और रत्नवती के साथ राजा गुरु के पास चल दिया। कालक्रम से पहुँचा । वाराणसी में स्थित भगवान् विजयधर्म को देखा । हर्षित मुखकमल हो वन्दना की। गुरु ने धर्मलाभ दिया, आने का प्रयोजन पूछा। राजा ने बताया, गुरु सन्तुष्ट हुए । उन्होंने बधाई दी । अनन्तर उत्तम तिथि, करण और मूहूर्त में वाराणसी नरेश द्वारा महान् द्रव्य से सेवित होकर परिजनों के साथ महाविभूति से युक्त हो विशुद्धभाव से चारित्ररूप परिणामवाला राजा प्रव्रजित हो गया।
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