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अट्ठमो भवो ]
ता मणिऊण विवायं एवंविहमेत्थ पावकम्माणं । तह जयह जहा पावह एहि पि पुणो न दुक्खा ॥६३६॥ इय कहियम्मि नियाणे सवित्थरे तत्थ लोयनाहेण । पडिरुद्धमोहपसरं जाओ मे परमसंवेगो ॥६४०॥ भणिओ य तिहुयणगुरू भयवं सिवसोक्खकारणं परमं । गण्हामि तुह समीबे पव्वज्ज तुम्ह वयणेण ॥४१॥ देवीए परियणेण य एवं बहु मन्निऊण मे वयणं । विन्नतो इणमेव उ नियकज्जकएण भुवणगुरू ॥ ९४२॥ भणियं च भुवणगुरुणा अहासुहं मा करेह पडिबंधं । भवगहणम्मि असारे किच्चमिणं नवर भवियाण ॥६४३॥ सोऊण इमं वयणं भावेण पज्जिऊण सयराहं । काऊण लोयमग्गं पडिवन्नं दव्वओ ताहे ॥६४४॥
ततो ज्ञात्वा विपाकमेवंविधमत्र पापकर्मणाम् । तथा यतेथां यथा प्राप्नुतमिदानीमपि पुनर्न दुःखानि ॥६३६॥ इति कथिते निदाने सविस्तरे तत्र लोकनाथेन । प्रतिरुद्धमोहरप्रसरं जातो मे परमसंवेगः ।।६४०॥ . भणितश्च त्रिभुवनगुरुर्भगवन् ! शिवसौख्यकारणं परमम् । गृह्णामि तव समीपे प्रव्रज्यां युष्माकं वचनेन ॥६४१।। देव्या परिजनेन चैवं बहु मत्वा मे वचनम् । विज्ञप्त इदमेव तु निजकार्यकृते भुवनगुरुः ॥९४२।। भणितं भुवनगुरुणा यथासुखं मा कुरुत प्रतिबन्धम् । भवगहने सारे कृत्यमिदं नवरं भविकानाम् ॥६४३।। श्रत्वेदं वचनं भावन प्रव्रज्य शीघ्रम् ।। कृत्वा लोकमार्ग प्रतिपन्नं द्रव्यतस्तदा ।।६४४।।
अनुभव किया। अतः इस प्रकार के पापकर्मों का फल जानकर वैसा यत्न करो, जिससे अब भी पुनः दुःख न हो। इस प्रकार लोकनाथ भगवान् जिनेन्द्र ने विस्तृत रूप से जब निदान कहा तो मोह का विस्तार रुक जाने के कारण मुझे अत्यधिक विरक्ति उत्पन्न हुई। और तीनों लोकों के गुरु भगवान् से मैंने कहा कि आपके वचन से आपके ही समीप मोक्षसुख की कारणभूत उत्तम दीक्षा को लेता हूं। मेरे वचनों का आदर कर महारानी और परिजनों ने भी मेरे कार्य के विषय में जगद्गुरु से यही निवेदन किया। जगदगुरु ने कहा कि जिससे सुख हो (ऐसे कार्य में) रुकावट नहीं करना चाहिए; क्योंकि असार गहन भव में यह भव्य जीवों के करने योग्य कार्य है । इस वचन को सुनकर शीघ्र ही भावपूर्वक प्रवजित होकर लोकमार्गानुसार द्रव्यरूप से दीक्षा ग्रहण की। यह मेरा
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