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[समराइचकहा
पडिवज्जिऊण य तओ गणिणीवयणं गयाणि नियगेहं। हिदुहिययाइ धणियं धम्मम्मि कयाणुरायाई ॥६३३॥ कइवयदिणेसु य तहा जायाइं परमभत्तिजुत्ताई। उक्किट्टसाक्याई विसयसुहनियत्तचित्ताई ॥६३४॥ अणुवालिऊण पवरं सावयधम्में अहाउयं जाव । मरिऊण बंभलोए कंप्पम्मि तओऽववन्नाई। ६३५॥ आउं च तस्थ तुम्भे अहेसि सत्ताहियाइ अयराई। तत्तो चइऊण इह नरवइगेहेसु जायाइं ॥६३६॥ तिव्वं च सवरजम्मे कम्मं तुमए कयं इमीए वि। अणुमोइयं ति तस्स उ परिणामो निरयवासम्मि ॥६३७॥ अणुहूओ चिय तुम्भेहि तह य भरहम्मि खुद्दमणुयभवे । तक्कम्मसेसयाए अणुहूयमिणं तए दुक्खं ॥६३८॥
प्रतिपद्य च ततो गणिनीवचनं गतौ निजगेहम् । हृष्टहृदयो गाढं धर्मे कृतानुरागौ ।।६३३॥ कतिपयदिनेषु च तथा जातो परमभक्तियुतो। उत्कृष्टश्रावको विषयसुखनिवृत्तचित्तौ ॥६३४।। अनुपाल्य प्रवरं श्रावकधर्म यथायुर्यावत् । मृत्वा ब्रह्मलोके कल्प तत उपपन्नौ ॥६३५॥ आयुश्च तत्र युवयोरासीत् सप्ताधिकान्यतराणि । ततश्च्युत्वा इह नरपतिगृहयोतिौ ॥६३६॥ तीवं च शबरजन्मनि कर्म त्वया कृतमनयाऽपि । अनुमोदितमिति तस्य तु परिणामो निरयवासे ॥६३७॥ अनुभूत एव युवाभ्यां तथा च भरते क्षुद्र मनुजभवे । तत्कमशेषतयाऽनुभूतमिदं त्वया दुःखम् ।।१८॥
करनेवाला कहा है। अनन्तर गणिनी के वचनों को स्वीकार कर दोनों अपने घर गये। हर्षित हृदय हो तुम दोनों ने धर्म में अत्यधिक अनुराग किया तथा कुछ दिनों में विषय-सुख से निवृत्तचित्त वाले होकर परमभक्ति से - युक्त हो तुम दोनों उत्कृष्ट श्रावक हो गये। पश्चात् आयुपर्यन्त उत्कृष्ट श्रावक-धर्म का पालन कर मरकर ब्रह्म- लोक नामक स्वर्ग में उत्पन्न हुए । तुम दोनों की आयु वहाँ सात सागर से अधिक थी। वहां से च्युत होकर दोनों
यहाँ राजा के घर उत्पन्न हुए। शबरजन्म में तुमने जो तीव्र कर्म किया था और इसने जो अनुमोदन किया था उसका परिणाम नरकवास तथा क्षुद्र मनुष्यभव में भोगा ही। उस कर्म के शेष रह जाने से तुमने इस दुःख का
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