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________________ अट्ठमो भवो] .७४५ धम्मेण सयलभावा सुहावहा होंति जीवलोयम्मि। ..... : धम्मेण सासयसुहं लगभइ अचिरेण परमपयं ।।६२७॥ सो उण वियलियराएहि भावओ जिणरिदचंदेहि। होइ परिचितिएहि वि अलाहि कि ता पुलइएहि ॥२८॥ ता सुट्ठ कयं एवं जं दटुं आगयाइ जिणयंदे। जिणसाहुदंसणाई' हंदि वियारेति दुरियाई ॥२६॥.. कहिओ य तीए धम्मो तुब्भेहि वि नवर सुद्धचित्तेहि। पडिवन्नो जिणभणिओ कया य महुमंसविरई य ॥६३०॥ . गमिऊण कंचि कालं नमिऊण जिणे सुसाहुणीओ य। गेहमह पत्थियाइं भणियाणि य नवर गणिणीए ॥ ६३१॥ एज्जह इह पइदियहं एवं चिय तह सुणेज्जह य धम्म। दुक्खविरेयणभूयं पन्नत्तं वीयरागेहि ॥६३२॥ धर्मेण सकलभावाः सुखावहा भवन्ति जीवलोके । धर्मेण शाश्वत सुखं लभ्यतेऽचिरेण परमपदम् ॥६२७।। स पनविगलित रागभावितो जिनवरेन्द्रचन्द्रः । भवति परिचिन्तितैरपि अलं किं तावत् प्रलोकितैः ।।१२८॥ तत: सष्ठ कृतमेतद् यद् द्रष्टुमागतौ जिनचन्द्रान् । .... जिनसाधु दर्शनानि फिल विदारयन्ति दुरितानि ।।६२९॥ .... कथित श्च तया धर्मो युवाभ्यामपि नवरं शुद्धचित्ताभ्याम् । प्रतिपन्नो जिनभणितः कृता च मधुमांसविरतिश्च ॥६३०॥ गमयित्वा कंचित्कालं नत्वा जिनान् स साध्वीश्च । ..... गहमथ प्रस्थितौ भणितो नवरं गणिन्या ॥६३१॥ .... एतमिह प्रतिदिवसमेवमेव तथा शृणुतं च धर्मम् । दुःखविरेचनभूतं प्रज्ञप्तं वीतरागैः ।।६३२॥ चन्दन को जलाकर कोयले का व्यापार करता है । धर्म से संसार में सभी पदार्थ सुखकर होते हैं । धर्म से शीघ्र ही शाश्वत सुखवाला परमपद (मोक्ष) प्राप्त होता है । वह धर्म वीतरागी जिनेन्द्रों का भावपूर्वक भलीभाँति स्मरण मात्र करने से होता है, दर्शन करने की तो बात ही क्या। अतः ठीक किया जो आप दोनों जिनचन्द्रों के दर्शन के लिए आये । जिनेन्द्र भगवान और साधुओं के दर्शन निश्चित रूप से पापों को नष्ट करते हैं। गणिनी ने शुद्धचित्तवाले तुम दोनों को धर्मोपदेश दिया। जिनप्रोक्त वह धर्मोपदेश दोनों ने स्वीकार कर लिया और मध तथा मांस का त्याग किया। कुछ समय बिताकर जिनेन्द्र और सुसाध्वी को नमस्कार करने के बाद दोनों ने घर को प्रस्थान किया । गणिनी ने दोनों से कहा -यहाँ पर इस धर्म को प्रतिदिन सुनो (क्योंकि इसे) वीतरागों ने दुःख को नष्ट १. दंसणाहिं हंदि वियारेहि डरियाइ-पा. ज्ञा.. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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