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________________ ७४६ [समराइच्चकहा एसो मे वृत्तंतो कणयउरे साहिओ मए रन्नो। मग्गपडिवत्तिमादी इहभवपज्जायपज्जतो।। ६४५॥ एवं स्रोऊण समुप्पन्नो सन्वेसि संवेओ। चितियं च हि-एवं विवागदारुणं मोहचेट्ठियं; अक्खयं च जाणवतं भवसमुद्दे गुरुवयणनिच्छओ ति। वंदिओ भयवं, 'अणुग्गहिया अम्हे भयवया नियवृत्तंतकहणेणं' अहिणंदिओ सबहुमाणं, करयलस्यंजलिउडं विन्नत्तो गुणचंदेण-भयवं, जाणिओ मए भयवओ पहावेण जहटिओ धम्मो, पणट्ठा मिच्छावियप्पा, संजाया भयवंतवलणाराहणि च्छा, ता देहि ताव मे गिहिधम्मोचिया वयाई । विगहेण भणियं-भयवं, ममावि । दिन्नाई भयवया सावयवयाई। गहियाई जहाविहीए। जाया भावसावया। भत्तिबहुमाणेहिं वंदिओ भयवं, धम्मलाहिऊण भणिया य णेणं-कुमार, वियाणिऊण भवओ पडिबोहसमयं रायउराओ अहं एत्थ आगओ, संपन्न च मे जहाहिलसियं । ता तहि चेव गच्छामि। चिट्ठति तत्थ मह सणसुया बहवे साहुणो। पुणो अजोज्झाए मज्झ भवया(विया) दंसणं। सव्वहा दढव्वएण होयव्वं । कुमारेण भणियं--जं भयवं एष मे वृत्तान्तः कनकपुरे कथितो मया राज्ञः। मार्गप्रतिपत्त्यादिरिहभवपर्यायपर्यन्तः ।।६४५॥ एतच्छ त्वा समुत्पन्न: सर्वेषां संवेगः । चिन्तितं च तैः, एवं विपाकदारुणं मोहचेष्टितम्, अक्षतं च यानपात्रं भवसमुद्रे गुरु वचननिश्चय इति । वन्दितो भगवान्, 'अनुगृहीता वयं भगवता निजवृत्तान्तकथनेन' अभिनन्दितः सबहुमानम्, करतलकृताञ्जलिपुटं विज्ञप्तो गुणचन्द्रेण, भगवन् ! ज्ञातो मया भगवतः प्रभावेण यथास्थितो धर्मः, प्रनष्टा मिथ्याविकल्पाः, संजाता भगवच्चरणाराधनेच्छा, ततो देहि तावन्मे गृहिधर्मोचितानि व्रतानि । विग्रहेण भणितम्-- भगवन् ! ममापि । दत्तानि भगवता श्रवकव्रतानि । गृहीतानि यथाविधि । जाता भावश्रावका:। भक्ति बहुमानाभ्यां वन्दितो भगवान् । धर्मलाभयित्वा भणिताश्च तेन-कुमार ! विज्ञाय भवतः प्रतिबोधसमयं राजपुरादहमत्रागतः । सम्न्नं च मे यथाऽभिलषितम्। ततस्तत्रैव गच्छामि। तिष्ठन्ति तत्र मम दर्शनोत्सुका बहवः साधवः। पुनरयोध्यायां मम भविता दर्शनम् । सर्वथा द्रहवोन भवितव्यम् । कुमारण वृत्तान्त है जो कनकपुर में मैंने राजा से कहा था। मार्ग दिखलाने से लेकर इस भव की अवस्था पर्यन्त (यह मेरा वृत्तान्त है)।' ॥८८४-६४५॥ यह सुनकर सभी को वैराग्य उत्पन्न हो गया। उन्होंने सोचा कि मोह की चेष्टा इस प्रकार परिणाम में भयंकर है। संसाररूपी समुद्र में गुरु-वचनों के अनुसार निश्चय करना अक्षय जहाज के समान है, ऐसा सोचकर भावान की वन्दना की। भगवान के द्वारा अपना वृत्तान्त कहे जाने से हम लोग अनुगृहीत हैं—इस प्रकार आदरपूर्वक अभिनन्दन किया।, गुणचन्द्र ने हाथ जोड़कर निवेदन किया-'भगवन् ! मैंने भगवान् के प्रभाव से सही धर्म.जाना.. मिथ्याविकल्प नष्ट हए, भगवान के चरणों की आराधना की इच्छा उत्पन्न हुई अत: मुझे गहस्थ धर्म के योग्य व्रतों को दीज़िये ।' विग्रह ने कहा- 'भगवन् ! मुझे भी (श्रावक के व्रत) दीजिये।' भगवान् ने श्रावक के व्रत दिये । विधिपूर्वक व्रत ग्रहण किये। भावपूर्वक श्रावक हो गये। भक्ति और आदरपूर्वक भगवान् की वन्दना की। धर्मलाभ देकर (भगवान ने) उससे कहा-'कुमार ! आपके प्रतिबोधन का समय जानकर राजपुर से मैं यहाँ आया और मेरा अभीष्ट कार्य सम्पन्न हो गया। अतः वहीं जाता हूँ। वहाँ पर मेरे दर्शन के इच्छुक बहुत से साधु बैठे हैं। अयोध्या में पुन: मेरे दर्शन होंगे। सर्वथा दृढव्रत वाले होओ।' कुमार ने कहः --- 'जो भगवान् आज्ञा दें।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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