________________
अट्ठमो भवो]
७४६
आणवेइ। आगासगमणेण समं सेससाहूहि पयट्टो गुरू। वंदिओ कुमारविगहेहिं पुलइओ य भत्तिनिन्भरेहिं । अदंसणीहूए य वंदिऊण परमभत्तीए पयट्टा अओज्झारि।
इओ य तद्दियहमेव गओ अओझं वाणंतरो। कया ग कुमारपरियणासन्ने कवडवत्ता, जहा 'विग्गहेण वावाइओ कुमारो' त्ति । समागया एसा सवणपरंपराए मेसीबलकण्णगोयर, न सद्दहिया य जेण, सया रयणवईए। मच्छिया एसा, समासासिया परियणेण । निवेइयं च रन्नो। समागओ राया, बाहोल्ललोयणं चलणेसु निवडिऊण विन्नत्तो रयणवईए-ताय, अणजाणाहि मं मंदभाईणि, पविसामि जलणं, परिच्चएमि एए अज्जउत्ताकुसलसवणे वि संठिए नि लज्जपाणे, पावेमि लहुं सुरलोयसंठियं अज्जउत्तं । राइणा भणियं-अविहवे, अलमिमिणा सोएण। असदहणीयमेयं । न खलु केसरी गोमाउणा वावाइज्जइ। समाइट्ठो कुमारस्स सिद्धाएसेण तुह पुत्तजम्मो; अवितहाएसो य सिद्धाएसो। अणाउलं च मे हिययं । दिट्टो य मए कुसल सुविणओ। कुमारमंतरेण । जाया उप्पाया। अविवन्ना य तह अविहवासिरी। ता न एयममंगलं एवं हवइ। जम्मंतरवेरिएण केणावि एसा कवडवत्ता कया भविस्सइ।
भणितम् यद् भगवान् आज्ञापयति। आकाशगमनेन समं शेषसाधुभिः प्रवृत्तो गुरुः । वन्दितः कुमारविग्रहाभ्यां प्रलोकितश्च भक्तिनिर्भराभ्याम् । अदर्शनीभूते च वन्दित्वा परमभक्त्या प्रवृत्ती अयोध्यापुरीम्।
इतश्च तद्दिवस एव गतोऽयोध्यां वानमन्तरः । कृताऽनेन कुमारपरिजनासन्ने कपटवार्ता, यथा “विग्रहेण व्यापादितः कुमारः' इति । समागतैषा श्रवणपरम्परया मैत्रीबलकर्णगोचरम, न श्रद्धिता च तेन । श्रुता रत्नवत्या । मूच्छितैषा, समाश्वासिता परिजनेन । निवेदितं च राज्ञः । समागतो राजा, बाष्पार्द्रलोचनं चरणयोनिपत्य विज्ञप्तो रत्नवत्या-तात ! अनुजानीहि मां मन्दभागिनीम्, प्रविशामि ज्वलनम्, परित्यजाम्येतानार्यपुत्राकुशलश्रवणेऽपि संस्थितान् निर्लज्जप्राणान्, प्राप्नोमि लघु सुरलोकसंस्थितमार्यपुत्रम् । राज्ञा भणितम्- अविधवे ! अलमनेन शोकेन, अश्रद्धानीयमेतद् । न खलु केसरी गोमायुना व्यापाद्यते। समादिष्टः कुमारस्य सिद्धादेशेन तव पुत्रजन्म, अवितथादेशश्च सिद्धादेशः। अनाकुलं च मे हृदयम् । दृष्टश्च मया कुशलस्वप्नः । कुमारमन्तरेण न जाता उत्पाताः । अविपन्ना च तवाविधवाश्रीः। ततो नैतदमङ्गलमेवं भवति। जन्मान्तरवैरिकेन
आकाशगमन से शेष साधुओं के साथ गुरु चले गये। कुमार और विग्रह ने नमस्कार किया और भक्ति से भरे हुए होकर (उन्हें) देखा। उनके दृष्टि से ओझल हो जाने पर परमभक्ति से वन्दना कर दोनों अयोध्यापुरी आ गये।
इधर उसी दिन वानमन्तर अयोध्या गया । इसने कुमार के परिजनों के समीप कपटवार्ता की कि 'विग्रह ने कुमार को मार डाला ।' कानों-कान यह बात मैत्रीबल ने सुनी, उसने विश्वास नहीं किया। रत्नवती ने सुनी। यह (रत्नवती) मूच्छित हो गई, परिजनों ने सान्त्वना दी और राजा से निवेदन किया। राजा आया। (तब) आँखों में आँसू भरकर चरणों में गिरकर रत्नवती ने निवेदन किया -'तात ! मुझ मन्दभागिनी को आज्ञा दो, अग्नि में प्रवेश करूँगी, आर्यपुत्र का अकुशल सुनने पर भी स्थित इन निर्लज्ज प्राणों का परित्याग करूंगी और शीघ्र ही देवलोक में स्थित आर्यपुत्र को प्राप्त करूंगी।' राजा ने कहा-'सौभाग्यवती ! इस शोक से बस अर्थात् यह शोक करना व्यर्थ है, यह बात विश्वास करने के योग्य नहीं है । निश्चित रूप से सिंह सियार के द्वारा नहीं मारा जाता है। सिद्धादेश ने कुमार का तुम्हारे पुत्र-जन्म कहा है और सिद्धादेश सत्यवचनवाले हैं। मेरा हृदय आकुल नहीं है। मैंने शुभस्वप्न देखा है। कुमार के मध्य उत्पात नहीं हुए । तुम्हारी सौभाग्यलक्ष्मी जीवित है। अतः यह
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org