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________________ | समराइच्चकहा समागया रयणी । पसुतो देवउलपीढियाए विसेणो । अड्ढरत्तसमए य घेत्तूण मंडलग्गं एक्कओ चेव ओणमुनिवरसम्रीवं । दिट्ठो य णेणं भाणनिच्चलमणो मुणी । वियंभिया से अरई, वड्ढिओ मोहो, अवगया वियारणा, पज्जलिओ को वाणलो, फुरियं दाहिणभुयाए, कड्ढिय मंडलगं, भणिओ य भयवं - अरे दुरायार, सुबिट्ठ जीवलोयं करेहि; विबन्नो संपयं मम हत्थाओ । परमज्याणट्टियमणेण नायfणयं भयवया | आयण्णियं च भयवओ गुणाणुराइणीए खेत्तदेवयाए । कुविया एसा विसेणस्स । वाहियण मंडलग्गं भयवओ, अवहडं खेत्तदेवयाए, थंभिओ एसो, भणिओ य णाए-अहो ते पावकमया, अहो संकिलेसो, अहो अणज्जत्तणं, अहो विवेयसुन्नया, जो एवं वासीचं दणकप्पस्त भयवओ वि एवं बवससि । ता गच्छ, अदट्ठव्वो तुमं ति । भणिय उत्थंभिओ सदयं देवयाए । तिव्वकसाओदएणं च अवगणिऊण देवयाए' वयणं पयट्टो पुणो वि घाइउं भयवंतं । तलप्पहारिओ देवयाए, विणित रुहिरुग्गारं निवडिओ धरणिवट्ठे, मुच्छिओ वियणाए । 'भयवओ उग्गहो' त्ति संबुद्धा देवया । आसासिओ सकरुणं, अवणीओ उग्गहाओ, मुक्को नेऊण वर्णानिउंजे । तिरोहिया देवया । चितियं च णेणं - अहो 1 1 ६६२ देवकुलम् ।] स्तोकवेलायां चातिक्रान्तो वासरः समागता रजनी । प्रसुप्तो देवकुलपीठिकायां विषेणः । अर्ध रात्रसमये च गृहीत्वा मण्डलाग्रमेकक एव गतः सेनमुनिवरसमीपम् । दृष्टस्तेन ध्याननिश्चलमना मुनिः । विजृम्भिता तस्यारतिः, वृद्धो मोहः, अपगता विचारणा, प्रज्वलितः कोपानलः, स्फुरितं दक्षिणभुजया, कृष्टं मण्डलाग्रम्, भणितश्च भगवान् - अरे दुराचार ! सुदृष्टं जीवलोकं कुरु, विपन्नः साम्प्रतं मम हस्ताद् परमध्यानस्थित मनसा नाकणितं भगवता ? आकणितं च भगवतो गुणानुरागिण्या क्षेत्रदेवतया । कुपितैषा विषेणस्य । वाहितमनेन मण्डलाग्रं भगवतः, अपहृतं क्षेत्रदेवतया । स्तम्भित एषः, भणितश्च तथा - अहो ते पापकर्मता, अहो अनार्यत्वम्, अहो विवेकशून्यता, य एवं वासीचन्दनकल्पस्य भगवतोऽपि एवं व्यवस्यसि । ततो गच्छ, अद्रष्टव्यस्त्वमिति । भणित्वोत्तम्भितः सदयं देवतया । तीव्रकषायोदयेन चावगणय्य देवताया वचनं प्रवृत्तः पुनरपि घातयितुं भगवन्तम् । तल प्रहारितो देवतया, विनिर्यद्रुधिरोद्गारं निपतितो धरणीपृष्ठे, मूच्छितो वेदनया । 'भगवतोऽवग्रहः' इति संक्षुब्धा देवता । आश्वासितः सकरुणम् । अपनीतोऽवग्रहात्, मुक्तो नीत्वा वननिकुञ्जे । मन्दिर में चला गया ] थोड़ी देर हुई कि दिन बीत गया, रात आयी । देवमन्दिर के चबूतरे पर विषेण सोया । आधी रात के समय तलवार लेकर अकेला ही सेन मुनिवर के पास गया। उसने ध्यान से निश्चल मन वाले मुनि को देखा । उसका क्रोध बढ़ गया, मोह बढ़ा, विचार नष्ट हुआ, क्रोधाग्नि प्रज्वलित हुई, दाहिनी भुजा फड़की, तलवार खींची और भगवान से कहा - ' अरे दुराचारी ! अच्छी तरह संसार को देख ले, अब तुम मेरे हाथ से मारे गये ।' परमध्यान में स्थित मन बाले भगवान् ने नहीं सुना और भगवान् के गुणों की अनुरागी क्षेत्रदेवी ने सुन लिया । यह विषेण पर कुपित हुई । विषेण ने भगवान् के ऊपर तलवार चलायी, क्षेत्रदेवी ने छीन ली। यह स्तम्भित हो गया । क्षेत्रदेवी ने कहा- 'तेरा पापकर्म, संक्लेश, अनार्यता तथा विवेकशून्यता आश्चर्यकारक है जो कि ऐसे चन्दन के समान सुगन्धि देनेवाले भगवान् के प्रति भी इस प्रकार का कार्य करता है । अतः जाओ, तुम न दिखाई देने योग्य हो ।' ऐसा कहकर दयापूर्वक देवी ने उठा दिया । तीव्रकषाय के उदय से देवी के वचन को न मानकर पुनः भगवान् को मारने के लिए प्रवृत्त हुआ। देवी ने थप्पड़ मार दी । रुधिर का वमन करता हुआ धरती पर गिर गया, वेदना से मूच्छित हो गया । भगवान् को बाधा होगी, यह सोचकर वनदेवी क्षुब्ध हुई । करुणायुक्त १. देवयावयणंपा ज्ञा. । अवमन्निऊण देवयं-- डे. ज्ञा. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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