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________________ सत्तमो भवो] ६६१ तवेण सुत्तेण अत्थेणं एगतेण बलेण य। तुलणा पंचहा वुत्ता जिणकप्पं पडिवज्जओ ॥ ६४५ ॥ पढमा उवस्सयम्मी बीया बाहिं तइया चउक्कम्मि। सुन्नहरम्मि चउत्थो तह पंचमिया सुसाणम्मि' ॥ ६४६ ॥ एवमाइ तुलिऊणं अप्पाणं। ___ तओ गामेऽगरायं नगरे पंचराएण विहरमाणो अइक्कते पहूयकाले समागओ कोल्लागसन्निवेसं । ठिओ एगत्थ पडिमाए। दिट्ठो य भटुरज्जेणं कइवयपुरिससहाएण परिन्भमंतेण विसेणेण । दुरंतपुवकयकम्मदोसेण जाओ य से कोवो। चितियं च णेण-अहो मे पावपरिणई, पुणो वि एस दिवो ति। अहवा सोहणमिणं, जओ एस एयाई मुक्काउहो विवित्तदेसटिओ य। ता वावाएमि एयं पावकम्मं, पूरेमि अत्तणो मणोरहे । अहवा न जुत्तमसि नियकुलउत्तयाण पुरओ वावायणं ति । ता पुणो वावाइस्सं ति। चितिऊण पयट्टो तयासन्नदेवउलसमीवं। [मा वियाणिस्संति 'एएण वावाइयंति न साहिउँ निययपुरिसाणं गओ तयासन्नमेवावासथामं देवउलं । थेववेलाए य अइक्कंतो वासरो, तपसा सूत्रेण अर्थन एकान्तेन बलेन च । तुलना पञ्चधोक्ता जिनकल्पं प्रतिपद्यमानस्य ।। ६४५ ।। प्रथमोपाश्रये द्वितीया बहिस्तृतीया चतुष्के । शून्यगृहे चतुर्थी तथा पञ्चमी श्मशाने ॥६४६॥ एवमादि तुलयित्वाऽऽत्मानम् । ततो ग्रामे एकरात्र नगरे पञ्चरानेण विहरन् अतिक्रान्ते प्रभूतकाले समागत: कोल्लाकसन्निवेशम् । स्थित एकत्र प्रतिमया। दृष्टश्च भ्रष्ट राज्येन कतिपयपुरुषसहायेन परिभ्रमता विषणेन । दुरन्तपूर्वकृतकर्मदोषेण जातश्च तस्य कोपः । चिन्तितं च तेन-अहो मे पापपरिणतिः, पुनरप्येष दृष्ट इति । अथवा शोभनमिदम्, यत एष एकाकी मुक्तायुधो विविक्तदेशस्थितश्च । ततो व्यापादयाम्येतं पापकर्माणम्, पूरयाम्यात्मनो मनोरथान् । अथवा न युक्तमेतेषां निजकुलपुत्राणां पुरतो व्यापादन मिति । ततः पुनापादयिष्ये इति । चिन्तयित्वा प्रवृत्तस्तदासन्नदेवकुलसमीपम् । [मा विज्ञास्यन्ति 'एतेन व्यापादितम्' इति अकथयित्वा निजपुरुषेभ्यो गतस्तदासन्नमेवावासस्थानं जिनकल्प को प्राप्त हुए की तुलना तप, सूत्र, अर्थ, एकान्त और बल इस प्रकार से पाँच प्रकार की कही गयी है। प्रथम उपाश्रय में, दूसरी बाहर, तीसरी चौराहे पर, चौथी शून्य गृह में तथा पांचवीं श्मशान में ॥६४५-६४६॥ ---इस प्रकार अपने आपको तोलकर । ___ अनन्तर गाँव में एकरात्रि, नगर में पांच रात्रि विहार करते हुए अधिक समय बीत जाने पर कोल्लक सन्निवेश में आये । वहाँ पर प्रतिमायोग से स्थित हो गये । कुछ पुरुषों के साथ भ्रमण करते हुए राज्य से भ्रष्ट हुए कुमार विषेण ने (उन्हें) देखा। कठिनाई से अन्त होनेवाले पूर्वकृत कर्म के दोष से उसे कोप हुआ और उसने सोचा-'ओह ! मेरे पाप का फल, यह पुनः दिखाई दे गया। अथवा यह ठीक है; क्योंकि यह अकेला अस्त्र त्याग किया हुआ और एकान्त स्थान में है । अतः इस पापी को मारता हूँ, अपने मनोरथ को पूर्ण करता हूँ । अथवा अपने कुलपुत्रों के साथ इसको मारना उचित नहीं है। अतः बाद में मार डालूंगा-ऐसा सोचकर समीपवर्ती देवमन्दिर के पास चला गया ['इसने मारा' ऐसा नहीं जानेंगे अतः अपने आदमियों से बिना कहे ही वहाँ समीप के ही देव १. मसाणम्मि-डे. ज्ञा.। २. विविहतवसोसियदेहो वि ए (स) अभिन्नाओ तेण जाओ-पा. ज्ञा.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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