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सत्तमो भवो ] मे पावपरिणई । कहं पुण न एस वावाइओ ति। गहिओ अमरिसेण। भावियं रोद्दज्झाणं । बद्धं नरयाउयं, पोसियं अहिणिवेसेण। अइक्कंतो कोइ कालो। अन्नया विउत्ते परियणे वाहिज्जमाणो छहाए एगाई चेव वच्चमाणो वोप्पिलाडवीए, मझभागम्मि गिद्धावयरणनिमित्तं पिच्छसंपायणुज्जएहि सवरेहि पयंपमाणो दीणविस्सरं वावाइओ विसेणो। समुप्पन्नो तमाभिहाणाए नरयपुढवीए बावीससागरोवमाऊ नारगो त्ति ।
भयवं पि सेणाणगारो विहरिऊण संजमुज्जोएण भाविऊण उवसमसुहं काऊण संलेहणं वंदिऊण वीयराए पडिवज्जिऊणमणसणं काऊण "लगंडसाइतं आराहिऊण भावणाओ चहऊण देहपंजर समुप्पन्नो नवमगेवेज्जए तीससागररोवमाऊ देवो त्ति।
॥ समतो सत्तमो भवो ।।
तिरोहिता देवता। चिन्तितं च तेन---अहो मे पापपरिणतिः। कथं पुनर्नैष व्यापादित इति । गृहीतोऽमर्षेग। भावितं रौद्रध्यानम् । बद्धं नरकायः, पोषितमभिनिवेशेन। अतिक्रान्तः कोपि कालः । अन्यदः वियुक्त परिजने बाध्यमानो क्षुधा एकाक्येव व्रजन् वोप्पिलाटव्या मध्यभागे गृध्रावत रणनिमित्तं पिच्छसम्पादनोद्यतैः शबरैः प्रजल्लन दीनविस्वरं व्यापादितो विषेणः । समुत्पन्नस्तमोऽभिधानायां नरकपृथिव्यां द्वाविंशतिसागरोपमायुर्नारक इति ।
भगवानपि सेनानगारो विहृत्य संयमोद्योगेन भावयित्वोपशमसुखं कृत्वा संलेखनां वन्दित्वा वोतरागान् प्रतिपद्यानशनं कृत्वा लगण्डशायित्वं (वक्रकाष्ठमिव शयनं कृत्वा) आराध्य भावनास्त्यक्त्वा देहपञ्जरं समुत्पन्नो नवमवेयके त्रिंशत्सागरोपमायुर्देव इति ।
॥ समाप्तं सप्तमभवग्रहणम् ॥
होकर (विषेण को) आश्वस्त किया। बाधा से दूर किया, वनकुंन में ले जाकर छोड़ दिया। देवी तिरोहित हो गयी। विषेण ने सोचा--ओह मेरे पाप का फल ! यह कैसे नहीं मारा गया ? क्रुद्ध हुआ। रौद्रध्यान किया । नरक की आयु बाँधी । दुष्ट अभिप्राय से नरकायु का पोषण किया । कुछ समय बीता। एक बार परिजनों के वियुक्त हो जाने पर क्षुधा से पीड़ित अकेला ही भ्रमण करते हुए, दीन स्वर में बोलते हुए विषेण को वोप्पिल अटवी (वन) के मध्य भाग में गोधों के उतरने के लिए पंखों के सम्पादन में उद्यत शबरों ने मार डाला । वह तमः नामक नरक की पृथ्वी में बाईस सागर की आयु वाला नारकी हुआ।
___ भगवान् सेन मुनि भी संयमपूर्वक विहारकर उपशम सुख की भावना कर, सल्लेखना कर, वीतरागों की वन्दना कर, अनशन को प्राप्त कर, टेढ़ी लकडो के समान शयन कर, भावनाओं को आराधना कर, शरीररूपी पिंजड़े को छोड़कर नवम ग्रैवेयक में तीस सागर की आयु वाले देव हुए।
||सातवां भव समाप्त ॥
१. लगडं दुसस्थितं (वक्र) काष्ठं तद्वच्छिरः पाणी नां भलग्नेन शेरते ये ते लगडशायिनः, तेषां भावो लगंडशायित्वम्
(प्रश्न माया रण टीका प. १०७)
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