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[ समराइच्चकहा
frodeकारणपरंपरा, अहो असारया संसारस्स । ता किमेत्य साहेमि । न य न याणइ इमं पवंचमेसो । अभिन्न कमीइसी बाणी । अम्हारिसजण विवोहणत्थं तु तक्केमि एस एवं चेदृइ । ता इमं एत्थ पत्ता, साहेमि एयं जहट्ठियं ति । चितिऊण जंपियं सारहिणा - देव, न खलु एयं पेरणं, एसो खु पुरिसोति । कुमारेण भणियं -अज्ज, अह को उण इमो मच्चू । सारहिणा भणियंदेव, जेण घत्यो पुरिसो बंधवेहि पि एवं परिच्चइथइ । कुमारेण भणियं - अज्ज, दुट्ठो खु एसो अहिओ लोस्स; ता कीस ताओ एवं न वहेइ । सारहिणा भणियं- कुमार, अवज्झो एस तायस्स । कुमारेण भणियं- - आ कहमवज्झो नाम तायस्स । लोयपडिबोहणत्थं च मग्गियं खग्गं । 'अरे रे बुट्टमच्चु, मुंच मुंच एयं, ठाहि वा जुज्झसज्जो' त्ति भणमाणो उट्ठिओ रहवराओ, पयट्टो तस्स संमुहं । भणिओय सारहिणा - देव, न खलु मच्चू नाम कोइ दुट्टपुरिसो निग्गहारिहो राईण, अवि य जीवाणमेव सम्मपरिणामणिओ देहपरिच्चायधम्मो । ता अप्पहू एयस्स रायाणो, साहारणो खु एसो सव्वजीवाण । कुमारेण भणियं - भो नायरया, किमेवमेयं । नायरएहिं भणियं - देव, एवं । कुमारेण
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अहो निर्वेदका रणपरम्परा, अहो असारता संसारस्य । ततः किमत्र कथयामि । न च न जानातीमं प्रपञ्चमेषः । अनभिज्ञस्य कथमीदृशी वाणी । अस्मादृशजनविबोधनार्थं तु तर्कये एष एवं चेष्टते । तत इदमंत्र प्राप्तकालम्, कथयाम्येतद् यथास्थितमिति । चिन्तयित्वा जल्पितं सारथिना - देव ! न खल्वेतत् प्रेक्षणकम्, एष खलु मृत्युग्रस्तः पुरुष इति । कुमारेण भणितम् - आर्य ! अथ कः पुनरयं मृत्युः । सारथिना भणितम् - देव ! येन ग्रस्तः पुरुषो बान्धवैरप्येवं परित्यज्यते । कुमारेण भणितम् - आर्य ! दुष्टः खल्वेषोऽहितो लोकस्य ततः कस्मात् तात एतं न घातयति । सारथिना भणितम् - कुमार ! अवध्य एष तातस्य । कुमारेण भणितम् - - आः कथमवध्यो नाम तातस्य । लोकप्रतिबोधनार्थं च मार्गितं खड्गम् । 'अरेरे दुष्टमृत्यो ! मुञ्च मुञ्चैतम् तिष्ठ वा युद्धसज्ज:' इति भणन् उत्थितो रथवरात् प्रवृत्तस्तस्य सम्मुखम् । भणितश्च सारथिना -देव ! न खलु मृत्युर्नाम कोऽपि दुष्टपुरुषो निग्रहार्हो राज्ञाम् अपि च जीवानामेव स्वकर्मपरिणामजनितो देहपरित्यागधर्मः । ततोऽप्रभव एतस्य राजानः, साधारणः खल्वेष सर्वजीवानाम् । कुमारेण भणितम् - भो नागरका : !
के कारण की परम्परा, ओह ससार की असारता ! अतः यहाँ क्या कहूँ ? ऐसी बात नहीं है कि यह इस जंजाल को न जानते हों । अनभिज्ञ व्यक्ति की ऐसी वाणी कैसे हो सकती है ? मैं अनुमान करता हूँ कि हम जैसे लोगों को अब समय आ गया है, इनसे सही बात कहता
त करने के लिए यह इस प्रकार की चेष्टा कर रहे हैं। अतः हूँ - ऐसा सोचकर सारथी ने कहा - 'महाराज, यह नाटक नहीं है, यह मृत्यु से ग्रस्त पुरुष है।' कुमार ने कहा'आर्य ! यह मृत्यु क्या है ?' सारथी ने कहा- महाराज, इससे ग्रस्त हुए पुरुष को बान्धव भी छोड़ देते हैं । कुमार ने कहा - 'आर्य ! यह तो दुष्ट है, लोक के लिए अहितकारी है । तब पिताजी किस कारण से इसका घात नहीं करते हैं ?' सारथी ने कहा - 'कुमार ! यह तात (महाराज) द्वारा अवध्य है । कुमार ने कहा'आह, पिताजी क्यों नहीं मार सकते ?' और लोगों के प्रतिबोधन के लिए लिए खड्ग मँगाई । 'अरे दुष्ट मृत्यु ! छोड़ दे, छोड़ दे इसे, अथवा युद्ध को तैयार हो जा।' कहते हुए रथ से उठे और उसके सामने बढ़े । सारथी ने कहा - 'महाराज मृत्यु नाम राजा के द्वारा दण्ड देने योग्य कोई दुष्ट पुरुष नहीं, अपितु उत्पन्न शरीरपरित्यागरूप धर्म है। अतः इस पर राजा का पराक्रम साधारण है।' कुमार ने कहा- हे नागरिको ! क्या यह ऐसा ही
जीवों का ही अपने कर्म के परिणाम से नहीं चलता। यह सभी जीवों के लिए
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