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________________ ५५८ [समराइच्चकहा निवडिओ चलणेसु, उवविट्ठो कुट्टिमतले । पत्थुया धम्मकहा। एत्थंतरम्मि समहिलिया चेव समागया बंधदेवसागरनामा सत्यवाहपुत्ता। पणमिऊण भयवई भणियं सागरेण - महाराय, न एत्थ खेवो' कायन्वो त्ति । दिद मए अच्चब्भुयं असंभावणीयं महारायस्स वि एगंतविम्हयजणयं किंचि वत्थं । विम्हियक्रुित्तहियओ अमणियतयत्थो न चएमि चिट्रिउं । ता कि तयं ति पुच्छामि भयवइं। राहणा भणियं-भो सत्थवाहपुत्त, कि तमच्चन्भुयं असंभावणीयं च । सागरेण भणियं-देव सुण।। अस्थि इओ कोइ कालो पणइणीए मे पणदृस्स हारस्स । विसुमरिओ एसो। गओ य अहमज्ज भत्तत्तरसमयम्मि चित्तसालियं, जाव अयंडम्मि चेव चित्तंतरालगएण ऊससियं मोरेण उन्नामिया गोवा विहयं 'पक्खजालं पसारिओ बरिहभारो। तओ ओयरिऊण तओ विभागाओ कुसुम्भरत्तवसणसंगयम्मि पडलए विमुक्को गेण हारो। गओ निययथाम, ठिओ निययरूवेणं । समुप्पन्नो य मे विम्हओ 'हंत किमेयं' ति। तओ थेववेलाए चेव समुद्धाइओ जयजयारवो, विभूसियमंबरं सुरसिद्धनिपतितश्चरणयोः । उपविष्ट: कुट्टिमतले । प्रस्तुता धर्मकथा। अत्रान्तरे समहिलावेव समागतो बन्धुदेवसागरनामानी सार्थवाहपुत्री। प्रणम्य भगवती भणितं सागरेण-महाराज ! नात्र खेदः कर्तव्य इति । दृष्टं मयाऽत्यद्भुतमसम्भावनीयं महाराजस्यापि एकान्तविस्मयजनक किञ्चिद् वस्तु । विस्मयाक्षिप्तहृदयोऽज्ञाततदर्थो न शक्नोमि स्थातुम् । ततः किं तदिति पृच्छामि भगवतीम् । राज्ञा भणितम्-भो सार्थवाहपुत्र ! किं तदत्यद्भुतमसम्भावनीयं च ? सागरेण भणितम्-देव शृणु। अस्तीतः कोऽपि कालः प्रणयिन्या मे प्रनष्टस्य हारस्य । विस्मृत एषः । गतश्चाहमद्य भुक्तोत्तरसमये चित्रशालिकाम्, यावदकाण्डे एव चित्रान्तरालगतेनोच्छ्वसितं मयूरेण, उन्नामिता ग्रीवा, विधूतं पक्षजालम्, प्रसारितो बहभारः। ततोऽवतीर्य ततो विभागात् कुसुम्भरक्तवसनसङ्गते पटलके विमुक्तस्तेन हारः । गतो निजस्थानम्, स्थितो निजरूपेण । समुत्पन्नश्च मे विस्मयो 'हन्त किमेतद्' इति । ततः स्तोकवेलायामेव समुद्धावितो जयजयारवः, विभूषितमम्बरं सुरसिद्धविद्याधरैः, गया। फर्श पर बैठ गया । धर्म कथा प्रस्तुत हुई। इसी बीच दो महिलाओं के साथ बन्धुदेव और सागर नाम के दो वणिकपुत्र आये । भगवती को नमस्कार कर सागर ने कहा-'महाराज ! आप अब खेद न करें, मैंने अत्यन्त अद्भुत और असम्भावनीय तथा महाराज को एकान्तरूप से विस्मय में डाल देनेवाली कोई वस्तु देखी है। विस्मय से पूर्ण हृदयवाला मैं उसके अर्थ का निश्चय नहीं कर पा रहा हूँ। अतः वह क्या है, यह भगवती से पूछता हूँ।' राजा ने कहा-'हे वणिकपुत्र ! वह अत्यन्त अद्भुत और असम्भावनीय वस्तु क्या है ?' सागर ने कहा-'सुनो। कुछ समय पहले मेरी प्रिया का हार नष्ट हो गया था। यह भूल गयी । आज मैं भोजन के बाद चित्रशाला में गया, तब असमय में ही चित्रशाला के बीच में ही मोर ने लम्बी सांस ली, गर्दन ऊँची की, पंखों को फड़फड़ाया, पूंछ फैलायी। फिर उस भाग से उतरकर कुसुम्भी रंग के वस्त्र से युक्त पेटी में उसने हार छोड़ा। वह मोर अपने स्थान पर चला गया और अपने स्वाभाविक रूप में खड़ा हो गया। मुझे विस्मय हुआ-आश्चर्य है, यह क्या है ! अनन्तर थोड़े ही समय में जय जय शब्द उठा । सुर, सिद्ध और विद्याधरों से आकाश विभूषित हो गया, १. खेयो-क । २. पक्खजालियं-क । ३. नियमेव-क । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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