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________________ सत्तमो भवो ] ५५६ विज्जाहरेहि, पवुटुकुसुमवरिसं । आयण्णियं च लोयाओ जहा समुप्पन्नं भयवईए केवलनाणं ति । तओ भत्तिविम्हयक्खितहियओ समागओ इहई ति। राइणा भणियं-अहो सच्चमच्चभुयं असंभावणिज्जं च । भयवइ किमेयं ति। भयवईए भणियं-सोम, किमच्चन्भुयं असंभावणिज्जं च कम्मपरिणईए। णियफलदाणसमुज्जयम्मि एयम्मि नत्थि तं, जं न होइ ति। तत्थ असहम्मि ताव जलं पि हुयासणो, चंदो वि तिमिरहेऊ, नओ वि अणओ, मित्तो वि वेरिओ, अत्थो वि अणत्थो, भवणोयरगयस्स वि य सध्वस्सपाणनासयं अप्पतक्कियं चेव निवडइ नहयलाओ वि असणिवरिसं। सहम्मि विवज्जओ । तं जहा-विसं पि अमयं, दुज्जणो वि सज्जणो, कुचेट्ठा वि फलहेऊ, अयसो वि हु जसो, दुव्वयणं पि सुवयणं, गिरिमत्थयगयस्स वि य सयलजणपीइकारयं सपराहमेव लोयंतरे वि सुहावहं कुओ वि संपज्जए महानिहाणं ति। राइणा भणियं-भयवइ, अह कस्स पुण एसा कम्मपरिणई । भयवईए भणियं - सोम, मज्झेव आसि त्ति । राइणा भणियं-कहं किंनिमित्तस्स वा कम्मरस । भयवईए भणियं - सुण। प्रवृष्टं कुसुमवर्षम् । आकणितं च लोकाद् यथा समुत्पन्नं भगवत्याः केवलज्ञानमिति। ततो भक्तिविस्मयाक्षिप्तहृदयः समागत इहेति । - राज्ञा भणितम् -अहो सत्यमद्भुतमसम्भावनीयं च। भगवति ! किमेतदिति । भगवत्या भणितम् ---सौम्य ! किमत्यद्भुतमसम्भावनीयं च कर्मपरिणत्याः? निजफलदानसमुद्यते एतस्मिन् नास्ति तद् यन्न भवतीति । तत्राशुभे तावज्जलमपि हुताशनः, चन्द्रोऽपि तिमिरहेतुः, नयोऽप्यनयः, मित्रमपि वैरिकः, अर्थोऽप्यनर्थः, भवनोतरगतस्यापि च सर्वस्वप्राणनाशकमप्रतकितमेव निपतति नभस्तलादप्यशनिवर्षम् । शुभे विपर्ययः । तद् यथा--विषयप्यमृतम्, दुर्जनोऽपि सज्जनः, कुचेष्टाऽपि फलहेतुः, अयशोऽपि खलु यशः, दुर्वचनमपि सुवचनम्, गिरिमस्तकगतस्यापि च सकलजनप्रीतिकारक शीघ्रमेव लोकान्तरेऽपि सुखावहं कुतोऽपि सम्पद्यते महानिधानमिति । राज्ञा भणितम्-भगवति ! अथ कस्य पुनरेषा कर्मपरिणतिः ? भगवत्या भणितम्-सौम्य ! ममैव आसीदिति। राज्ञा भणितम्-कथं किंनिमित्तस्य वा कर्मणः ? भगवत्या भणितम् - शृणु। फूलों की वर्षा हुई और लोगों ने सुना कि भगवती को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है। पश्चात् भक्ति के कारण विस्मय से भरे हुए हृदयवाला मैं यहाँ आ गया।' राजा ने कहा – 'ओह ! सचमुच अत्यन्त अद्भुत और असम्भावनीय है । भगवती ! यह क्या है ?' भगवती ने कहा- 'हे सौम्य ! कर्म की परिणति के लिए क्या अद्भुत और असम्भावनीय है ! जब यह अपना फल देने के लिए उद्यत होती है तो ऐसा कुछ नहीं, जो न होता हो । अशुभकर्म आने पर जल भी अग्नि हो जाता है, चन्द्रमा भी अन्धकार का कारण हो जाता है, नीति भी अनीति हो जाती है, मित्र भी वैरी हो जाता है, अर्थ भी अनर्थ हो जाता है, भवन के अन्दर रहनेवाले के सर्वस्वभूत प्राणों का नाश अनायास ही हो जाता है तथा बिना किसी सम्भावना के आकाश से भी वज्र की वर्षा हो जाती है ! शुभकर्म आने पर विपरीत बात होती है। जैसे-विष भी अमृत हो जाता है, दुर्जन भी सज्जन हो जाता है, कुचेष्टा भी फल का कारण होती है, अयश भी यश हो जाता है, दुर्वचन भी सुवचन हो जाते हैं, पर्वत की चोटी पर गये हुए का भी समस्त मनुष्यों के लिए प्रीतिकारक, दूसरे लोक में भी सुखावह, महानिध न की शीघ्र ही कहीं से प्राप्ति हो जाती है ।' राजा ने कहा- 'भगवती ! यह कर्मपरिणति किसकी थी ?' भगवती ने कहा-'सौम्य ! मेरी ही थी।' राजा ने कहा-'किस कारण (अथवा किस कर्म के कारण) यह परिणति थी ?' भगवती ने कहा- 'सुनो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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