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________________ [ समराइच्च कहा after sea जम्बुद्दta chवे भारहे वासे संखवद्धगं नाम नयरं । तत्थ संखवालो नाम नरवई अर्हसि । तस्स अच्चंत बहुमओ धणो नाम सत्यवाहो, धण्णा से भारिया, धणवइधणावहा पुत्ता गुणसिरीय धूप त्ति । सा पुण अहमेव, परिणीया तन्नयरवत्थव्वएणं सोमदेवेणं । अविन्नायविसयसंगाए य उवरओ मे भत्ता । जाओ मे निव्वेओ । चितियं मए । एवमवसाणो खु एस सयणसंगमो; ता अलं एत्थ पडिबंधेणं । रया तवविहाणम्मि । अइक्कंतो कोइ कालो । अन्नयाय समागया तत्थ चंदताभिहाणा गणिणो । साहिया से सहियाहि । गया तीए वंदननिमित्तं जिणहरं । दिट्ठा य एसा । our fa निविवयारा कलासु कुसला वि माणपरिहीणा । सुयदेवय व्व धम्मं साहेंती सावियाणं तु ॥ ५६८ ।। जाओ य मे विम्हओ । अहो से रूवसोम्मया । पविट्ठा जिणहरं । चालियाओ घंटाओ । पज्जालिया 'बीवया । विमुक्कं कुसुमवरिसं । पूयाओ वीयरायपडिमाओ । उग्गा हिओ धूवो । वंदिया परम गुरवो । समागया गणिणीसमीवं । पणमिया एसा । धम्मलाहिया य णाए । उवविट्ठा तीए पुरओ । ५६० अस्तीहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे शङ्खवर्धनं नाम नगरम् तत्र शङ्खपालो नाम नरपतिरासीत् । तस्यात्यन्तबहुमतो धनो नाम सार्थवाहः, धया तस्य भार्या, धनपतिधनावहौ पुत्रौ गुणश्रीश्च दुहितेति । सा पुनरहमेव, परिणीत। तन्नगरवास्तव्येन सोमदेवेन । अविज्ञातविषयसङ्गयाश्च उपरतो मे भर्ता । जातो मे निर्वेदः । चिन्तितं मया - एवमवसानः खलु एष स्वजनसङ्गमः, ततोऽलमत्र प्रतिबन्धेन । रता तपोविधाने । अतिक्रान्तः कोऽपि कालः । अन्यदा च समागता तत्र चन्द्रकान्ताभिधाना गणिनी । कथिता मे सखीभिः । गता तस्या वन्दननिमित्तं जिनगृहम् । दृष्टा चैषा । रुचिराऽपि निर्विकारा कलासु कुशलाऽपि मानपरिहीना । 1 श्रुतदेवतेव धर्मं कथयन्ती श्राविकाणां तु ॥ ५६८ः । जातश्च मे विस्मयः । अहो तस्य रूपसौम्यता । प्रविष्टा जिनगृहम् । चालिता घण्टाः । प्रज्वालिता दीपाः । त्रिमुक्तं कुसुमवर्षम् । पूजिता वीतरागप्रतिमः । उद्गाहितो धूपः । वन्दिता परमगुरवः । समागता गणिनोसमीपम् । प्रणतैषा । धर्मलाभिता च तया । उपविष्टा तस्याः पुरतः । इसी जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में शंखवर्धन नाम का नगर है। वहाँ पर शंखपाल नामक राजा था। उसके द्वारा अत्यधिक सम्मानित 'धन' नाम का व्यापारी था। उस व्यापारी की धन्या नामक स्त्री थी । धनपति और धनावह दो पुत्र तथा गुणश्री नाम की पुत्री थी। वह पुत्री मैं ही हूँ। मेरा विवाह उसी नगर के निवासी सोमदेव के साथ हुआ था । विषयसुख का अनुभव न कर मेरे पति की मृत्यु हो गयी। मुझे वैराग्य उत्पन्न हो गया । मैंने सोचा - स्वकीयजनों के संगम का इस प्रकार अन्त होता है, अतः इसमें बँधने से कोई लाभ नहीं । तप में रत हो गयी। कुछ समय बीता। एक बार चन्द्रकान्ता नामक गणिनी आयीं। मुझे सखियों ने बताया । मैं उनकी वन्दना के लिए जिनमन्दिर गयी और उनके दर्शन किये। वह सुन्दर होने पर भी निर्विकार थीं, कलाओं में कुशल होने पर भी मानरहित थीं, श्रुतदेवता के समान वह श्राविकाओं को धर्मोपदेश दे रही थीं ।। ५६८ ।। मुझे विस्मय हुआ - 'ओह ! उनकी सौम्यता !' ( मैं ) जिनमन्दिर में प्रविष्ट हुई घण्टा बजाया । दीपक जलाये फूलों की वर्षा की। वीतराग प्रतिमा की पूजा की धूप जलायी । परमगुरुओं को प्रणाम किया। (और) गणित के पास आयी । उन्हें प्रणाम किया। उन्होंने ( गणिनी ने ) धर्मलाभ दिया और मैं उनके सामने बैठ गयी । १. दिवियाक । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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