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________________ ८११ नमो भवो ] सियमणेहिं तुरियतुरियं निवेइया समाणत्ती पडिहारहि । 'अहो भवियव्वमेत्थ परमाणंदेणं' ति आणदिया सचिवा | भणियं च णेहि-जं देवो आणवेइ । तयणंतरं च सज्जिओ रहवरो, कया जंतजोया, निवेसियं आयवत्तं, दिन्नाओ वेजयंतीओ, निबद्धं किंकिणीजालं, निविट्ठाई रयणदामाई, ओलंबिया मुत्ताहारा, विरइयाओ मणितारयाओ, उवगप्पियं आसणं, लंबिया चामरोऊला । एत्थंतरम्मि इमं वइयरमवयच्छिऊण विसेसुज्जलनेवच्छाई सहरिसं समागयाई पायमूलाई, कुंकुमखोयभरिएहि कच्चो हि वसंतनेवच्छधारी मंडयंतो विय छणं मिलिओ भुयंगलोओ, विचित्तजाणारूढा संगणं परियणं पमोयवियसंतलोयणं कुमारदंसणू सुयत्तेण उवत्थिया रायउत्ता, धवलहरनिज्जूह एहि छणासयदंसणत्थं ओहसियथलन लिणिसोहाई विणिग्गयवयणकमलं ठियाइं अंतेउराई । एत्थंतरम्मि पत्तो नयरीए ऊसको । निवेइयं राइणो सचिवेहि-देव, संपाडियं कुमारमंतरेण देवसासणं; संपयं, देवो पमाणं ति । हरिसिओ राया । भणिओ य णेण कुमारो-वच्छ, करेहि महापुरिसकर णिज्जं वढेहि ऊसवं नायरयाणं । कुमारेण भणियं-जं ताओ आणवेइ । पणमिऊण सह असोयाइए ह प्रेक्षिष्यते, भवितव्यमस्माकमपि कल्याणेन' इति हर्षितमनोभिः त्वरितत्वरितं निवेदिता समाज्ञप्तिः प्रतीहारै: । 'अहो भवितव्यमत्र परमानन्देन' इत्यानन्दिताः सचिवाः । भणितं च तैः - यद् देव आज्ञापयति । तदनन्तरं च सज्जितो रथवरः, कृता यन्त्रयोगाः, निवेशितमातपत्रम्, दत्ता वैजयन्त्यः, निबद्धं किङ्किणीजालम्, निविष्टानि रत्नदामानि, अवलम्बिता मुक्ताहाराः, विरचिता मणितारकाः, उपकल्पितमासनम्, लम्बिताश्चामरावचूलाः । अत्रान्तरे इमं व्यतिकरमवगम्य विशेषोज्ज्वलनेपथ्यानि सहर्षं समागतानि पात्रमूलानि कुङ कुमक्षोदभृतैः कच्चोलैर्वसन्तनेपथ्यधारी मण्डयन्निव क्षणं मिलितो भुजङ्गलोकः, विचित्रयानारूढाः सङ्गतेन परिजनेन प्रमोदविकसद्लोचनं कुमारदर्शनोत्सुकत्वेनोपस्थिता राजपुत्राः, धवलगृहनिर्यू हकेषु क्षणातिशयदर्शनार्थमुपहसितस्थलनलिनीशोभानि विनिर्गतवदनकमलं स्थितान्यतः पुराणि । अत्रान्तरे प्रवृत्तो नगर्यामुत्सवः । निवेदितं राज्ञः सचिवैः - देव ! सम्पादितं कुमारमन्तरेण देवशासनम्, साम्प्रतं देवः प्रमाणमिति । हर्षितो राजा । भणितश्च तेन कुमारः - वत्स ! कुरु महापुरुषकरणीयम्, वर्धस्वोत्सवं नागरकानाम् । कुमारेण हम लोगों का भी कल्याण होना चाहिए' इस प्रकार हर्षित मनों से शीघ्रतातिशीघ्र प्रतीहारों ने आज्ञा निवेदन की । 'ओह ! आज परम आनन्द होगा - इस प्रकार सचिव हर्षित हुए । उन्होंने कहा - 'जो महाराज आज्ञा दें ।' तदनन्तर श्रेष्ठ रथ तैयार किया गया, यन्त्र लगाये गये, छत्र स्थापित किया गया, पताकाएँ फहरायी गयीं, छोटी-छोटी घण्टियाँ बाँधी गयीं, रत्नों की मालाएँ लटकायी गयीं, आसन की रचना की गयी और चँवर तथा चौरीमा गुच्छे लटकाए गये। इसी बीच इस घटना को सुनकर विशेष उज्ज्वल वेष धारण किये हुए अभिनेता हर्ष पूर्व आये । वे प्यालों में केसर का चूर्ण भरे हुए थे, वसन्त के वेष को धारण किये हुए थे, मानो महोत्सव का मण्डन करते हुए विट पुरुष मिल गये । विचित्र सवारियों पर आरूढ़ परिजनों के साथ प्रमोद से जिनके नेत्र खिल रहे थे ऐसे राजपुत्र कुमार के दर्शन की उत्सुकता से उपस्थित हुए । धवलगृह के दरवाजों में महोत्सव की की अतिशयता देखने के लिए स्थल- कमलिनी की शोभा का उपहास करनेवाली, मुखकमलों को निकाले हुए अन्त:पुरिकाएँ खड़ी हो गयीं। इसी बीच नगर में उत्सव आरम्भ हुआ। राजा से सचिवों ने निवेदन किया 'महाराज ! कुमार के अतिरिक्त, महाराज की आज्ञा पूरी कर दी, अब महाराज प्रमाण हैं।' राजा हर्षित हुआ और उसने कुमार से कहा- 'वत्स ! महापुरुषों के योग्य कार्य करो, नागरिकों के उत्सव को बढ़ाओ ।' कुमार ने कहा - ' जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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