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________________ ८१० [ समसइञ्चकहा भो संपाडिया मम तुहि बहुसो नियविभूइदंसणेग निव्वई, अहं पुण तुम्हाण कुमारदंसणेण अहियं संपाडेमि । अन्नं च, संपयं कुमारो एत्य कारणपुरिसो; ता तम्सि चेव बहुमाणो कायव्वो ति। महंतहि भणियं-जं देवो आणवेइ। अन्नं च, देवपसायाओ वि एस महापसाओ जहिं कुमारदसणं ति। निग्गया महंतया। राइणा वि सद्दाविओ कुमारो, भणिओ य सबहुमाणं-वच्छ, ठिई एसा इमीए नयरीए, जं मयणमहूसवे दटुवाओ नयरिचच्चरीओ राइणा, दिवाओ प मए अणेगसो। संपयं पुण अणुगंतव्वो गुरुसमणुगओ मग्गो त्ति तेणेव विहिणा तुम पि पेच्छाहि । एवं च कए समाणे ममं परियणस्स नायरयाण य महंतो पमोओ हवइ । कुमारेण भणियं-जं ताओ आणवेइ। तओ हरिसिओ राया, दिन्ना समाणत्ती पडिहाराणं। हरे भणह मम वयणाओ नाणगब्भपमुहे पहाणसचिवे, जहा 'नयरिच्छणचच्चरीदसणसुहं संजत्तेह रहवराइयं कुमारस्स, मम वयणाओ नायरयाइपरिओसनिमित्तं रायपयवत्तिणा गंतव्वमज्ज गेण छणचच्चरीदंसणनिमित्तं' ति । 'ज देवो आणवेइ' ति भणिऊण 'कुमारो अज्ज छणच च्चरीओ पेक्खिस्सइ, भवियन्वमम्हाणं पि कल्लाणेणं' ति हरिसौख्यमिति । चिन्तयित्वा भणिता महान्तः-भोः सम्पादिता मम युष्माभिर्बहुशो निजविभूतिदर्शनेन निर्वतिः, अहं पुनर्युष्माकं कुमा दर्शनेनाधिकं सम्पादयामि । अन्यच्च, साम्प्रतं कमारोऽत्र कारणपुरुषः, ततस्तस्मिन्नेव बहुमानः कर्तव्य इति। महद्भिर्भणितम्-यद्देव आज्ञापयति । अन्यच्च, देवप्रसादादप्येष महाप्रसादो, यत्र कमारदर्शन मिति । निर्गता महान्तः । राज्ञाऽपि शब्दायितः कुमारः, भणितश्च सबहुमानम्--वत्स ! स्थितिरेषा अस्या नगर्याः, यद् मदनमहोत्सवे द्रष्टव्या नगरचर्चर्यो राज्ञा, दृष्टाश्च मयाऽनेकशः। साम्प्रतं पुनरनुगन्तव्यो गुरुसमनुगतो मार्ग इति तेनैव विधिना त्वमपि प्रेक्षस्व । एवं च कृते सति मम परिजनस्य नागरकानां च महान् प्रमोदो भवति। कुमारेण भणितम्-यत् तात आज्ञापयति । ततो हर्षितो राजा, दत्ता समाज्ञप्तिः प्रतीहाराणाम् । अरे भणत मम वचनाद् ज्ञानगर्भप्रमुखान्, प्रधानसचिवान्, यथा 'नगरीक्षणवर्चरीदर्शनसुखं संयात्रयत रथवरादिकं कुमारस्य, मम वचनाद् नागरिकादिपरितोषनिमित्तं राजपदवतिना गन्तव्यमद्यानेन क्षणचर्चरीदर्शननिमित्तम्' इति । 'यद् देव आज्ञापयति' इति भणित्वा 'कुमारोऽद्य क्षणचर्चरी: संसार के विकार के दर्शन से दूसरा ही रस उत्पन्न होकर मेरे परिजनों को इच्छा से भी अधिक सुख की प्राप्ति हो-ऐसा सोचकर बड़े लोगों से कहा-'आप. लोगों ने अनेक प्रकार की विभूति का दर्शन कराकर मुझे शान्ति पहुँचायी, पुन: मैं आप लोगों को कुमार का दर्शन कराकर अधिक सम्पादित करता हूँ। दूसरी बात यह है, इस समय कुमार यहाँ कारणपुरुष हैं, अतः उनका ही सम्मान करना चाहिए।' बड़े लोगों ने कहा- 'जो महाराज आज्ञा दें। दूसरी बात यह है कि महाराज की कृपा से भी अधिक यह कृपा है कि कुमार यहाँ के दर्शन करेंगे । बड़े लोग चले गये (निकल गये)। राजा ने भी कुमार को बुलाया और आदरपूर्वक कहा-'पुत्र ! इस नगर की यह मर्यादा है कि मदन-महोत्सव में नगर की नृत्य-मण्डलियों को राजा देखे । मैं अनेक बार देख चुका है। इस समय बड़े लोगों से अनुगत मार्ग का अनुसरण करना चाहिए, अत: उसी विधि से तुम भी देखो। ऐसा करने पर मेरे परिजनों और नागरिकों को महान् प्रमोद होगा।' कुमार ने कहा--'पिताजी की जो आज्ञा।' अनन्तर राजा हर्षित हुआ, प्रतीहारों को आज्ञा दी.-'अरे ! मेरे वचनों के अनुसार ज्ञानगर्भप्रमुख प्रधान सचिवों से कहो कि नगर के महोत्सव में नृत्यमण्डली देखने के सुख के लिए कुमार का श्रेष्ठ रथ आदि ले जाओ, मेरे कथनानुसार नागरिक आदि के सन्तोष के लिए राज्याधिकारियों को इस महोत्सव की नृत्यमण्डलियां देखने के लिए जाना चाहिए ।' 'महाराज जैसी आज्ञा दें। ऐसा कहकर 'कुमार आज महोत्सव की नृत्य मण्डलियां देखेंगे (अत:) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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