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________________ नवमो भवो ] च मम मित्तरज्जमिमं ति उत्तणो कघत्थेइ बालवुड्ढ पि मयणो, सिसिरसत्तुविगमेण विय वियसियकमलवणा कमलिणी, महुसमागमसुहेण विय पणट्टतमाओ जंति जामिणीओ, उउलच्छिदंसणपसत्ता, विय तहा परिमंथरगमणा वासरा; जहिं च अग्घए नवरंगय, बहुमया पसन्ना, वहति डोलाओ, सेविज्जति काणणाई, मणहरो चंदो, अहिमओ गेयविही, वट्टति पेरणाई, पियाओ कामिणीओ; जहिं च विसेसुज्जलने वच्छाई कोलंति तरुणवंद्राई, भमंति महाविभूईए देवयाणं पि रहवरा, मयणवाहभएन विय सरणाई अल्लियंति विययमेसु पियाओ । एवंविहे य महसमए राइणो पुरिससीहस्स नयरिच्छणदंसणनिमित्तं समागया नयरिमहंतया । विग्नत्तो णेहिं राया- देव, देवे नरवइम्मि निच्चच्छणो नयरीए; तहावि समागओ महुसमओ त्ति विविहचच्चरीदंसणेण देवपसायलालियाणं पयाणं छणाओ वि गरुयं छणंतरं करेउ देवो नायरयाणं ति । राइणा चितियं - अहो सोहणमुवत्थियं, मयणमितो खु महुसमओ । ता कुमारं एत्थ निउंजामि, जेण तहा विचित्तसंसारवियारदंसणेण संजायरसंतरो संपाडेइ मे परियणस्स य समीहियाहियं सोक्खं ति । चितिऊण भणिया महंतया । ८०६ यत्र च मम मित्रराज्यमिदमिति दृप्तः कदर्थयति बालवृद्धमपि मदनः, शिशिरशत्रुविगमेनेव विकसित मलवदना कमलिनी, मधुसमागमसुखेनेव प्रनष्टतमसो यान्ति यामिन्यः, ऋतुलक्ष्मीदर्शनप्रसक्ता इव तथा परित्यागमना वासराः, यत्र च राजते नवरङ्गकम्, बहुमता प्रसन्ना, वहन्ति दोनाः काननानि, मनोहरश्चन्द्रः, अभिमतो गेयविधिः वर्तन्ते प्रेक्षणकानि, प्रियाः कामिन्यः यत्र च विशेषोज्ज्वलनेपथ्यानि क्रीडन्ति तरुणवन्द्राणि, भ्रमन्ति महाविभूत्या देवतानामपि रथवराः मदनव्याधभयेनेव शरणान्यालीयन्ते प्रियतमेषु प्रियाः । एवंविधे मधुसमये राज्ञः पुरुषसिंहस्य नगरीक्षणदर्शननिमित्तं समागता नगरीमहान्तः । विज्ञप्तस्तै राजा - देव ! देवे नरपतौ नित्यक्षणो नगर्याः, तथापि समागतो मधुसमय इति विविधचर्चदर्शनेन देवप्रसादलालितानां प्रजानां क्षणादपि गुरुकं क्षणान्तरं करोतु देवो नागरकानामिति । राज्ञा चिन्तितम् - अहो शोभनमुपस्थितम्, मदन मित्रः खलु मधुसमयः । ततः कुमारमत्र नियुञ्जे, येन तथा विचित्रसंसारविकारदर्शनेन सञ्जातरसान्तरः सम्पादयति मे परिजनस्य च समीहिताधिक स्थान है जहाँ पर मेरे मित्र का राज्य है- सोचकर अभिमानी काम बाल-वृद्धों का भी तिरस्कार करने लगा, शिशिररूपी शत्रु से अलग होते ही मानो कमलिनी विकसित कमल के समान मुखवाली हो गयी । वसन्त के समागम के सुख से रात्रियाँ नष्टान्धकार होकर व्यतीत होने लगीं । ऋतुलक्ष्मी के दर्शन में लगे हुए के समान दिन गमन में मन्दगतिवाले हो गये; वहाँ नयी रंगभूमि सुशोभित होने लगो, प्रसन्नों का सम्मान होने लगा, झूला झुलाए जाने लगे, उद्यानों का सेवन होने लगा, चन्द्रमा मनोहर हो गया, गाने की विधि इष्ट हो गयी, नाटक होने लगे, कामिनियाँ प्रिय हो गयीं; तरुण विशेष उज्ज्वल परिधान पहिन क्रीडा करने लगे, देवताओं के भी श्रेष्ठरथ महान् विभूति के साथ घूमने लगे । मदनरूपी बहेलिये से भयभीत हो मानो प्रियाएँ प्रियतमों की शरण में लीन होने लगीं । ऐसे वसन्त समय में राजा पुरुषसिंह की नगरी का उत्सव देखने के लिए नगर के बड़े लोग आये। उन लोगों ने राजा से निवेदन किया- 'महाराज ! महाराज के राजा होने पर नगरी का उत्सव नित्य होता रहता है, तथापि वसन्त समय आया है अतः अनेक प्रकार की नृत्य मण्डलियाँ देखकर महाराज की कृपा से लालित प्रजा के महोत्सव से भी अधिक महाराज ! नागरिकों का महोत्सव करें ।' सोचा- ओह ! कामदेव का मित्र वसन्त ठीक उपस्थित हुआ । अतः इसमें कुमार को नियुक्त जिससे उस प्रकार के विचित्र राजा ने करता हूँ, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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