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________________ ८०८ [समराइच्चकहा सोहणं ति। ललियंगएण भणियं-कि बहुगा, अन्नाणनिद्दापसुत्ता पडिबोहिया अम्हे कुमारेण, दंसियाई हेओवादेयाई । ता पयट्टम्ह सहिए, संपाडेमो कुमारसासणं । असोएण भणियं-कुमार, साहु जंपियं ललियंगएण; ता समाइसउ कुमारो, जमम्हेहि कायव्वं ति । कुमारेण भणियं-भो संखेवओ ताव एयं । उझियव्यो विसयराओ, चितियव्वं भवसरूवं, वज्जियत्वा कुसंसग्गी, सेवियव्वा साहुणो; तओ जहासतीए दाणसीलतवभावणापहाणेहि होयव्वं ति। असोयाईहिं भणियं-साहु कुमार साहु, पडियन्नमिणमम्हेहिं । कुमारेण भणियं --भो धन्ना खु तुम्भे; पावियं तुम्हेहिं फलं मणुयजम्मस्स । तेहि भणियं - कुमार साहु, एवमेयं; धन्ना खु अम्हे, न खलु अहन्नाण कुमारदसणं संपज्जइ । एवं चाहिणंदिऊण कुमारं संपूइया विसेसेण कुमारेण उचियाए वेलाए गया सहाणाइ असोयाई। पारद्धं जहोचियमणुट्ठाणमेएहिं । अइक्कता कइइ दियहा। एत्थंतरम्मि समागओ महुसमओ, वियंभिया वसिरी, मंजरिओ चूयनियरो, कुसुमिया तिलयाई, उल्लसिया अइमुत्तया, पवत्तो मलयाणिलो, मुइयं भमरजालं, पसरिओ परहुयारवो; हिं नास्त्यन्यत् शोभनमिति । ललिताङ्गेन भणितम् -- किं बहुना, अज्ञाननिद्राप्रसुताः प्रतिबोधिता वयं कमारेण दर्शितानि हेयोपादेयानि । ततः प्रवर्तामहे स्वहिते, सम्पादयामः कुमारशासनम् । अशोकेन भणितम्- कुमार ! साधु जल्पितं ललिताङ्गन, ततः समादिशतु कुमारो यस्माभि: कर्तव्यमिति । कुमारेण भणितम् - भोः संक्षेपतस्तावदेतद् । उज्झितव्यो विषयरागः, चिन्तियितव्यं भवस्वरूपम्, वर्जयितव्यः कुसंसर्गः, सेवितव्याः साधवः, ततो यथाशक्ति दानशीलतपोभावनाप्रधानैर्भवितव्र - मिति । अशोकादिभिर्भणितम्- साधु कुमार ! साधु, प्रतिपन्नमिदमस्माभिः। कुमारेण भणितम्भो धन्या खलु यूयम्, प्राप्तं युष्माभिः फलं मनुज जन्मनः । तैर्भणितम् कुमार ! साधु, एवमेतद्, धन्याः खलु वयम्, न खल्वधन्यानां कुमारदर्शनं सम्पद्यते । एवं चाभिनन्द्य कुगारं सम्पूजिता विशेषेणोचितायां वेलायां गताः स्वस्थानान्यशोकादयः, । प्रारब्धं यथोचितमनुष्ठानमेतैः । अतिक्रान्ताः कतिचिद् दिवसाः। ___अत्रान्तरे समागतः मधुसमयः, विजृम्भिता वनश्रीः, मञ्जरितश्चत निकरः, कुसुमिताः तिलकादयः, उल्लसिता अतिमुक्ताः प्रवृत्तो मलयानिलः, मुदित भ्रमरजालम्, प्रसृतः परभृतारवः, यही सही है. अन्य नहीं है।' ललितांग ने कहा---'अधिक क्या कहें, अज्ञान की नींद में सोये हुए हम लोगों को कूमार ने जगाया। छोड़ने योग्य और ब्रहण करनेयोग्य पदार्थ दिखलाये। अतः अपने हित में प्रवत्त होते हैं, कुमार की आज्ञा का पालन करते हैं।' अशोक ने कहा-'कुमार ! ललितांग ने ठीक कहा, अत: जो हमारा कर्तव्य हो, उसकी कुमार आज्ञा दें।' कुमार ने कहा - 'सक्षेप यह है--विषयों के प्रति राग छोड़ना चाहिए, संसार के स्वरूप का विचार करना चाहिए, बुरे संसर्ग का त्याग करना चाहिए, साधुओं की सेवा करना चाहिए। अनन्तर यथाशक्ति, दान, शील, तप और भावनाप्रधान होना चाहिए। अशोक आदि ने कहा--'ठीक है कुमार ! ठीक है, हम लोगों ने स्वीकार किया।' कुमार ने कहा- हे मित्रो ! तुम सब धन्य हो, तुम लोगों ने मनुष्य जन्म का फल पा लिया।' उन्होंने कहा-'कुमार ! ठीक है, यह ऐसा ही है, हम सभी लोग धन्य हैं । अधयों को कुमार का दर्शन प्राप्त नहीं होता ।' इस पुकार कुमार का अभिनन्दन कर विशेषणोचित बेला में पूजा कर अशोक आदि (मित्र) अपने-अपने स्थान पर चले गये । इन लोगों ने यथायोग्य अनुष्ठान प्रारम्भ किया। कुछ दिन बीत गये। - इसी बीच वसन्त का समय आया, वन की शोभा बढ़ी, आम्रसमूह मंजरित हुआ, तिलक आदि पुष्पित हुए, अतिमुक्ता विकसित हूई, मलयवायु चलने लगा, भ्रमरों का समूह प्रसन्न हुआ, कोयलों का शब्द फैला, यह वह For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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