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________________ नवमो भवो ८०७ सयणो उण ममत्ताणुरूवं करेइ पडिममतं, किलिस्सइ गिलाणाइकज्जे, परिच्चयइ गयजीयसारं, सुमरइ य पत्यावेसु, एस मज्झिममित्तो त्ति। धम्मो उण संगओ जहाकहंचि वच्छली एगतेण भविसाई भएसु निव्वाहए मित्तयं ति; एस उत्तमो। एवं च नाऊण अधुवे विसयसोक्ख असारे पयईए मोहणे परमत्थस्स दारुणे विवाए अवहीरिए धीरेहिं, पाविए माणुसत्ते उत्तमे भवाण दुल्लहे भवाडवीए सुखेते गुणधणाण साहए निव्वाणस्स उज्झिऊण मोहं चितिऊणायई अचिचिंतामणिसन्निहे वोयरायप्पणीए उवादेए नियमेण होइ वच्छला सप्पुरिससेविए उत्तममित्त घम्मे त्ति । एयं सुणमाणाण तहामन्वयाए असोयाईण विचित्तया । कम्मपरिणामस्स कुमारसन्निहाणसामत्थेण विसुद्धयाए जोयाण उक्कडयाए वीरियस्स वियंभिओ कुसलपरिणामो, वियलिओ किलिट्टकम्मरासी, अवगया मोहवासणा, तुट्टा असुहाणुबंधा, जाओ कम्मगठिभेओ, खओवसममुवयं मिच्छत्तं, आविहजो सम्मत्तपरिणामो । तओ समुप्पन्नसंवेगेण जंपियं असोएण- कुमार, एवमेयं, न एत्थ संदेहो, सोहणं समाइलैं कुमारेणं । कामकुरेण भणियं- सोहणाओ वि सोहणं । अहवा इयमेव एक्कं सोहणं, नत्थि अन्नं चोज्झति निरालम्बमिति, एतद् जघन्यमित्रम् । स्वजन: पुनर्ममत्वानुरूपं करोति प्रतिममत्वम, क्लिर ति ग्लानादिकायें, परित्यजति गतजीवितसारम्, स्मरति च प्रस्तावेष, एतद् मध्यममित्रमिति । धर्मः पुनः सङ्गतो ययाकथंचिद् वत्सल एकान्तेनाविषादी भयेषु निर्वाहयति मित्रतामिति, एतद् उत्तमम् । एवं च ज्ञात्वाऽध्रुवाणि विषयसौख्यान्यसाराणि प्रकृत्या मोहनानि परमार्थस्य दारुणानि विपाकेवधीरितानि धीरैः, प्राप्ते मानुषत्वे उत्तमे भवानां दुर्लभे भवाटव्यां सुक्षेत्रे गुणधान्यानां साधके निर्वाणस्य उज्झित्वा मोहं चिन्तयित्वाऽऽयतिमचिन्त्यचिन्तामणिसन्निभे वीतरागप्रणीते उपादेये नियमेन भवत वत्सलाः सत्पुरुपसेविते उत्तममित्रे धर्म इति । एतच्छण्वतां तथाभव्यतयाऽशोकादीनां विचित्रतया कर्मपरिणामस्य कुमारसन्निधानसामर्थ्येन विशुद्धतया योगानामुत्कटतया वीर्यस्य विज़म्भितः कुशलपरिणामः, विचलित: क्लिष्टक र्मराशिः, अपगता मोहवासना त्रुटिता अशुभानुबन्धाः, जातः कर्मग्रन्थिभेदः, क्षयोपशममुपगतं मिथ्यात्वम्, आविर्भूतः सम्यक्त्वपरिणामः । ततः समुत्पन्नसंवेगेन जल्पितमशोकेन-कुमार ! एतमेतद्, नात्र सन्देहः, शोभनं समादिष्टं कुमारेण । कामाङ कुरेण भणितम् -- शोभनादपि शोभनम् । अथवेदमेवैकं शोभन म स्वजन ममत्व के अनुरूप प्रतिममत्व को करता है, बीमारी आदि के कार्य में दु:खी होता है, प्राणों के चले जाने पर छोड़ देता है, प्रस्तावों (प्रसगों) में स्मरण करता है (अत:) यह मध्यममित्र है। जिस किसी प्रकार मिला हुआ धर्म एकान्त रूप से प्रेमी, भयों में विषाद न करनेवाला परममित्रता का निर्वाह करता है (अतः) यह उत्तममित्र है। इस प्रकार स्वभावतः विषयसुखों को अनित्य, असार, मोहित करनेवाले. परिणाम में दारण, और धीरों के द्वारा तिरस्कृत जानकर उत्तम भवों में संसाररूपी वन में दुलभ, गुणरूप धान्यों के लि! सुक्षेत्र, निर्वाण के साधक मनुष्यभव के प्राप्त होने पर मोह को छोड़कर, भावी फल का विचार कर, अचिन्तनीय चिन्तामणि के समान, वीतराग के द्वारा प्रणीत, नियमपूर्वक उपादेय, और सत्पुरुषो से सेवित उत्तममित्ररूप धर्म में आप लोगों को प्रेमयुक्त होना चाहिए।' यह सुनकर अशोक आदि की वैसी भव्यता, कर्मों के परिणाम की विमित्रता, कुमार के समीप होने की सामर्थ्य, योगों की विशुद्धता और शक्ति की उत्कटता से शुभ परिणाम बढ़ा, द:ख देनेवाले कर्मों की राशि विचलित हुई, मोह का सस्कार नष्ट हुआ, अशुभ से सम्बन्ध छूटे । कर्म की गाँठ खुल गयी, मिथ्यात्व का क्षयोपशम हुआ और सम्यक्त्व का परिणाम प्रकट हुआ। अनन्तर जिसे वैराग्य उत्पन्न हुआ है ऐसे अशोक ने कहा- 'कुमार, यह सही है, इसमें सन्देह नहीं है, कुमार ने ठीक ही कहा।' कामांकुर बोला- 'शोभन से भी अधिक शोभन है, अथवा एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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