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[ समराइच्च कहा
पट्ट रहाहिमुहं अहिणं दिज्जमाणो अंतेउरेहि पण मज्जमाणा रायउत्तेहि थुव्वमाणो भुयंगलोएण पुलइज्जमाणो पायमूलेहिं पत्तो रहसमीवं, आरूढो रहवरे, उवविट्ठा पहाणासणम्मि । निवेसिया असोयाई जहाजोग जाणेसु । भणियं च पेण- अज्ज सारहि, चोएहि अहिमयदेसगमणं पइ तुरंगमे । 'जं देवो आणवेइ' त्ति भणिऊण चोइया तुरंगमा । एत्थंतरम्मि समुद्धाइओ जयजयारवो, पहयं गमणतूरं चलिया रायउता, पणच्चियाइं पायमूलाई, उल्लसिया भुयंगा, खुहिओ पेच्छवजणो, पत्ता केली, विभिओ कुंकुमरओ । एवं च महया विमद्देण पेच्छमाणो सव्वमेयं संवेगभावियमई समोइण्णो रायमगं कुमारो । पवत्तो पेच्छिउं चच्चरीओ नाणाविहाओ रिद्धिविसेससोहियाओ जुत्ता विविग्भमेह तपसचच्चरीसमाओ संगयाओ हरिसेण वज्जेतेहि विविहत रेहि मणहराओ लोयस संवेगजणणीओ बुहाण | पेच्छमाणो 'अहो मोहसामत्थं, अहो अकज्जधीरया, अहो पमायचेट्टि, अहो अदीहदरिसिया, अहो अणालोयगत्तं, अहो असुहभावणा, अहो अमित्तजोओ, अहो संसारविलसियं' ति चितयंतो पवड्ढमाणेण संवेएण वियारयंतो कम्माई, भावयंतो कुसलजोए
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भणितम् - यत् तात आज्ञापयति । प्रणम्य सहाशोकादिभिः प्रवृत्तो रथाभिमुखमभिनन्द्यमानोऽन्तःपुरैः प्रणम्यमानो राजपुत्रैः स्तूयमानो भुजङ्ग लोकेन प्रलोक्यमानः पात्रमूलैः प्राप्तो रथसमीपम्, आरूढो रथवरम्, उपविष्टः प्रधानासने । निवेशिता अशोकादयो यथायोग्ययानेषु । भणितं च तेनआर्य सारथे ! चोदयाभिमतदेशगमनं प्रति तुरङ्गमान् । यद् देव आज्ञापयति' इति भणित्वा चोदितास्तुरङ्गमाः । अत्रान्तरे समुद्धावितो जयजयारवः प्रहृतं गमनतूर्यम्, चलिता राजपुत्राः, प्रवर्तितानि पात्रमूलानि, उल्लसिता भुजङ्गाः, क्षुब्धः प्रेक्षकजनः प्रवृत्ता केलिः, विजृम्भितं कुङ कुमरजः । एवं च महता विमर्देन प्रेक्षमाणः सर्वमेतत् संवेगभावितमतिः समवतीर्णो राजमार्ग कुमारः । प्रवृत्तः प्रेक्षितुं चर्चरीर्नानाविधा ऋद्धिविशेषशोभिता युक्ता विदग्धविभ्रमा स्त्रदशचर्चरी समाः सङ्गता हर्षेण वाद्यमानैर्विविधर्यैर्मनोहरा लोकस्य संवेगजननीबुधानाम् । पश्यन् 'अहो मोहसामर्थ्यम्, अहो अकार्यधीरता, अहो प्रमादचेष्टितम्, अहो अदीर्घदर्शिता, अहो अनालोचकत्वम्, अहो अशुभभावनाः, अहो अमित्रयोगः, अहो संसारविलसितम्' इति चिन्तयन् प्रवर्धमानेन संवेगेन विचारयन्
आज्ञा पिताजी ।' प्रणाम कर अशोकादि के साथ रथ की ओर चला । अन्तःपुर से अभिनन्दन किया जाता हुआ, राजपुत्रों के द्वारा नमस्कृत, विट पुरुषों के द्वारा स्तुति किया जाता हुआ, अभिनेताओं से देखा जाता हुआ रथ के समीप आया । श्रेष्ठ रथ पर चढ़ा। प्रधान आसन पर बैठ गया । अशोक आदि (मित्रों) को यथायोग्य आसनों पर बैठाया। उसने (कुमार ने कहा - 'आर्य सारथी ! इष्ट स्थान पर जाने के लिए घोड़ों को प्रेरित करो।' 'जो महाराज आज्ञा दें ' -- ऐसा कहकर घोड़ों को हांका । तभी जय-जय का शब्द उठा, प्रयाणकालीन बाजे बजे, राजपुत्र चले, अभिनेताओं ने नृत्य किया, विट पुरुष खिल गये, देखनेवाले लोग विचलित हो गये, क्रीड़ा आरम्भ हुई, केसर की धूलि फैल गयी। इस प्रकार बड़ी भीड़ से देखा जाता हुआ इन सबके प्रति वैराग्य बुद्धिवाला कुमार राजमार्ग पर उतरा । नृत्य मण्डलियाँ देखने लगा। वे नाना प्रकार की थीं, ऋद्धि विशेष से शोभित थीं, विदग्ध पुरुषों के विभ्रम से युक्त थीं । देवताओं की नृत्यमण्डलियों के समान हर्ष से युक्त थीं । अनेक प्रकार के बाजे बजाए जा रहे थे । संसारी प्राणियों के लिए मनोहर थीं और विद्वानों को वैराग्य उत्पन्न कर रही थीं। उन्हें देखकर 'ओह मोह की सामर्थ्य, ओह अकार्य की धीरता, ओह प्रमाद की चेष्टा, ओह अदीर्घदशिता, ओह अनालोचकता, ओह अशुभ भावना, ओह अमित्र का योग, ओह संसार का विलास - ऐसा सोचता हुआ बढ़ी हुई विरक्ति से कर्मों
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