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________________ नवमो भवो ] ८१३ विमुज्झमाणेण नाणेण पुलइज्जमाणो चच्चरीहि जणितो तासि तोसं निरूवयंतो पेरणाई 'देव पेच्छ एयं' ति भणिज्जमाणो सारहिणा अइगओ कंचि भूमिभागं । । ७ विट्ठो य णेण देवढियाए अइबीहच्छदंसणो असुइणा देहेण गलंतभासुरवयणो संकुचिएहि हत्थे ऊस्सूणचलणजुयलो पणट्टाए नासियाए विणिग्गघतंबनयणो परिगओ मच्छियाहि महावाहिगहिओ को पुरिलो ति । तं च दट्ठूण 'अहो कम्मपरिणइति करुणापवन्नहियएण पडिबोहण निमित्तं जणसमूहस्स भणिओ सारही अज्ज सारहि, अह कि पुण इमं पेरणं ति । तेण भणियं देव, न खल एवं पेरणं, एसो खु वाहिगहिओ पुरिसोति । कुमारेण भणियं-अ -अज्ज, अह को उण इमो वाही । सारहिणा भणियं देव, जो सुन्दरं पि सरीरं अयालेण एवं विणासेइ । कुमारेण भणियं -अज्ज, gha सो अहिओ लोस्स; ता कीस ताओ एवं विसहइ । सारहिणा भनियं- कुमार, अबको एस तायस्स । कुमारेण भणियं आ कहमवज्झो नाम । लोयपडिबोहणत्थं च मग्गियं खग्गं । 'अरे रे दुट्ठवाहि, मुंच मुंच एयं ठाहि वा जुज्झसज्जो' त्ति भणमाणो उट्ठिओ रहवराओ, पयट्टो तस्स संमुहं । कर्माणि, भावयन् कुशलयोगान् विशुद्धयमानेन ज्ञानेन दृश्यमानश्चर्चरीभिर्जनयन् तासां तोषं निरूपयन् प्रेरणानि ( प्रेक्षणकानि ) 'देव ! पश्यंतत्' इति भण्यमानः सारथिनाऽतिगतः कञ्चिद् भूमिभागम् । दृष्टश्च ते देवकुलपीठिकायामतिबीभत्स दर्शनोऽशुचिना देहेन गलद्भासुरवदनः संकुचिताभ्यां हस्ताभ्यः मुच्छून चरणयुगलः प्रनष्टया नासिकया विनिर्गतताम्रनयनः परिगतो मक्षिकाभि• महाव्याधिगृहीतः कोऽपि पुरुष इति । तं च दृष्ट्वा 'अहो कर्मपरिणतिः' इति करुणाप्रपन्नहृदयेन प्रतिबोधननिमित्तं जनसमूहस्य भणितः सारथि: - आर्य सारथे ! अथ किं पुनरिदं प्रेक्षणकमिति । तेन भणितम् - देव ! न खल्वेतत् प्रेक्षणकम्, एष खलु व्याधिगृहीतः पुरुष इति । कमारेण भणितम् - आर्य ! अथ कः पुनरयं व्याधिः । सारथिना भणितम्- देव ! यः सुन्दरमपि शरोरम कालेनैवं विनाशयति । कुमारेण भणितम् - आर्य ! दुष्टः खल्वेषोऽहितो लोकस्य ततः कस्मात् तात तं विसहते । सारथिना भणितम् - कुमार ! अवध्य एष तातस्य । कुमारेण भणितम्-आः कथमवध्यो नाम । लोकप्रतिबोधनार्थं च मार्गितं खड्गम् । 'अरेरे दुष्टव्याधे ! मुञ्च मुञ्चैतम् तिष्ठ वा युद्ध का विचार करता हुआ, विशुद्ध ज्ञान से शुभयोगों की भावना करता हुआ, नृत्यमण्डलियों के द्वारा देखा जाता हुआ, उनको सन्तोष उत्पन्न करता हुआ, नाटकों को देखता हुआ, 'महाराज ! इसे देखो' इस प्रकार सारथी के द्वारा कहा जाता हुआ वह कुछ दूर आगे निकल गया । उसने देवमन्दिर के चबूतरे पर अत्यन्त बीभत्स दर्शनवाला, अपवित्र देह से म्लान मुखवाला, संकुचित हाथोंवाला, दोनों पैर जिसके सूजे हुए थे, नाक जिसकी नष्ट हो गयी थी, जिसकी आँखें लाल-लाल निकल आयीं और जिससे मक्खियाँ लिपटी हुई थीं ऐसा बहुत बड़े रोग से ग्रस्त कोई पुरुष देखा । उसे देखकर 'ओह कर्म का फल !' इस प्रकार करुणाशील हृदयवाले कुमार ने जनसमूह को जाग्रत् करने के लिए सारथी से कहा'आर्य सारथी ! क्या यह नाटक है ?' उसने कहा - 'महाराज ! यह नाटक नहीं है, इस आदमी को रोग ने घेर लिया है ।' कुमार ने कहा - 'आर्य ! यह रोग कौन-सा है ?' सारथी ने कहा - 'महाराज ! जो सुन्दर शरीर को भी असमय में इस प्रकार विनष्ट कर देता है ।' कुमार ने कहा- 'आर्य ! यह दुष्ट है और संसार का अहितकर है अतः पिताजी इसे कैसे सहते हैं ?' सारथी ने कहा - ' कुमार ! इसे पिता जी नहीं मार सकते हैं ।' कुमार ने कहा - 'ओह, कैसे नहीं मारा जा सकता ?' लोगों के प्रतिबोधन के लिए तलवार ली । 'अरे रे दुष्ट रोग ! इसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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