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________________ नवमो भवो ] लीलालसविसमचलंतल लियपयरणरणंतमंजीरं । चल मेहलाकला बुल्लसंत कलकंकिणिकलावं ॥ ६८६ ॥ अन्नोन्नसमुक्खित्तुत्तरीयदीसंतथणयवित्थारं । हलहलय मिलियनायरयलोयरुद्धतसंचारं ॥ ६६ ॥ तूरियजणाणमणवरयचित्तविखष्पंतमहरिहाभरणं । विजियसुरलोयविहवं वद्धावणयं मणभिरामं ॥ ६६१ ॥ आनंदिया पउरजणवया । संपाडियं वद्धावणाइयं उचियकरणिज्जं । एवं च पइदिणं महंतमाणंदसोक्खमणहवंतस्स समइच्छितो पढमो मासो । पइट्टावियं नामं दारयस्स 'उचिओ एस एयस्स' त्ति कलिऊण सुमिणयदंसणेण पियामहसंतियं समराइच्चो ति । एत्यंतर म्म सो वि वाणमंतरजीवो नारओ तओ नरयाओ उव्वट्टिऊण नाणाविहतिरिएसु हिडिऊण पाविण दुखाइं तहाकम्मपरिणइवसेण गोमाउअत्ताए मरिऊण इमीए चेव नयरीए पाणवाडयम्मि गठिगाभिहाणस्स पाणस्स जक्खदेवाभिहाणाए भारियाए कुच्छिसि समुत्पन्नो सुय लीलालसविषमचलल्ललितपदरण रणन्मञ्जीरम् । चलमेखला कला पोल्लसत्कलकिङ्किणीकलापम् ।। ६८६ ॥ अन्योऽन्यसमुत्क्षिप्तोत्तरीयदृश्यमानस्तनविस्तारम् । कौतुक मिलितनागरलोकरुध्यमानसञ्चारम् || ६६० ॥ तौयिकजनानामनवरत चित्रक्षिप्यमानमहार्हाभिरणम् । विजितसुरलोकविभवं वर्धापनकं मनोऽभिरामम् ॥ ६६१ ॥ ७६३ आनन्दिताः पौरजनव्रजाः । सम्पादितं वर्धापनकादिकमुचितकरणीयम् । एव च प्रतिदिनं महदानन्दसौख्यमनुभवतः समतिक्रान्तः प्रथमो मासः । प्रतिष्ठापितं नाम दारकस्य 'उचित एष एतस्य' इति कलित्वा स्वप्नदर्शनेन पितामहसत्कं समरादित्य इति । Jain Education International अत्रान्तरे सोऽपि मानमन्तरजीवो नारकस्ततो नरकादुद्धृत्य नानाविधतिर्यवाहिण्ड्य प्राप्य दुःखानि तथाकर्मपरिणतिवशेन गोमायुकतया मृत्वाऽस्यामेव नगर्यां प्राणवाटके ग्रन्थिकाभिधानस्य प्राणस्य यक्षदेवाभिधानाया भार्यायाः कुक्षौ समुत्पन्नः सुततयेति । जातः कालक्रमेण प्रतिष्ठापितं होकर उछाले हुए गीतों की लय लोगों में हँसी उत्पन्न कर रही थी । लीला से थके होने के कारण विषम गति वाले सुन्दर पैरों के घुँघरू रुनझुन शब्द कर रहे थे । चंचल मेखलाओं पर छुद्र घण्टिकाएं सुशोभित हो रही थीं । एक-दूसरे पर उत्तरीय फेंकने से ( युवतियों के) स्तनों का विस्तार दिखलाई पड़ रहा था। कौतूहल से इकट्ठे हुए नागरिकों से मार्ग रुक गया था। बाजे बजानेवालों पर निरन्तर अनेक कीमती आभूषण न्यौछावर किये जा रहे थे । (इस प्रकार ) स्वर्ग के वैभव को जीतने वाला, मनोभिराम महोत्सव हो रहा था ।। ८५-६६१।। नागरिकों का समूह आनन्दित हुआ । बधाई आदि योग्य कार्यों का सम्पादन किया । इस प्रकार प्रतिदिन महान् आनन्द और सुख का अनुभव करते हुए पहला मास समाप्त हुआ । यह इसके योग्य है--- एसा मानकर स्वप्न के दर्शनानुसार शिशु का नाम पितामह के सदृश समरादित्य रखा गया । इसी बीच वह वानमन्तर का जीव नारकी भी उस नरक से निकलकर अनेक तिर्यंच योनियों में भ्रमण कर, दुःखों को प्राप्त कर वैसे कर्मों के वश सियार के रूप में मरकर इसी नगरी के प्राणवाटक में ग्रन्थिक नाम For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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