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________________ ७६४ [ समराइच्चकहा ताए ति । जाओ कालक्कमेण । पइट्ठावियं से नामं गिरिसेणो त्ति। सो य कुरूवो जडमई दुविखओ दरिदो ति दुखेण कालं गमेइ । ___समराइच्चो य विसिळं पुष्णफलमणुहवंतो पुटवभवसुकयवासणागुणेण बालभावे वि अबालभावचरिओ सयलसत्थकलासंपत्तिसुंदरं पत्तो कुमारभावं । पुष्वभवम्भासेण अणुरत्तो सत्थेसु चितए अहिणिवेसेण, उप्पिक्खए चित्तभावे, निरूवेई सम्म, घडेइ तत्तजत्तीए, भावए समभावेण, वडढए सद्धाए, पउंजए गोयरम्मि, गच्छए संवेयं । एवं च सत्थसंगयस्स तत्तभावणाणुसरणवलेणं जायं जाइसरणं । न विन्नायं जणेण। तओ सो अब्भत्थयाए कुसलभावस्स पहीणयाए कम्मुणो विसुद्धयाए नाणस्स हेययाए विसयाणं उवाएययाए पसमस्स अविज्जमाणयाए दुक्कडाणं उक्कडयाए जीववीरियस्स आसन्नयाए सिद्धिसंपत्तीए न बहु मन्नए रायलच्छि, न उज्जओ सरीरसक्कारे, न कोलए चित्तकोलाहि, न सेवए गामधम्मे, केवलं भवविरत्तचित्तो सुहझाणजोएणं काल गमेइ ति। त च तहाविहं दळूण समुप्पन्ना पुरिससीहस्स चिंता । अहो णु खलु एस कुमारो अणन्नसरिसे तस्य नाम गिरिषेण इति । स च कुरूपो जडम तिर्दु:खितो दरिद्र इति दुःखेन कालं गमयति । समरादित्यश्च विशिष्ट पुण्य फलमनुभवन् पूर्वभवसुकृतवासनागुणेन बालभावेऽप्यबालभावचरितः सकलशास्त्रकलासम्पत्तिसुन्दरं प्राप्तः कुमारभावम्। पूर्वभवाभ्यासेनानुरक्तः शास्त्रेषु चिन्तयत्यभिनिवेशेन, उत्प्रेक्षते चित्रभावान्, निरूपयति सम्यक, घटयति तत्त्वयुक्त्या, भावयति समभावेन, वर्धते श्रद्धया, प्रयुङ क्ते गोचरे, गच्छति संवेगम् । एवं च शास्त्रसंगतस्य तत्त्वभावनानुसरणबलेन जातं जातिस्मरणम् । न विज्ञातं जनेन । ततः सोऽभ्यस्ततया कुशलभावस्य प्रहो नतया कर्मणः विशद्धतया ज्ञानस्य हेयतया विषयाणामपादेयतया प्रशमस्याविद्यमानया दुष्कृतानामुत्कटतया जीववीर्यस्यासन्नतया सिद्धिसम्प्राप्तेन बह मन्यते राजलक्ष्मीम्, नोद्यतः शरीरसत्कारे न क्रीडति चित्रक्रीडाभिः, न सेवते ग्रामधर्मान्, केवलं भवविरक्तचित्तः शभध्यानयोगेन कालं गमयतीति । तं च तथाविधं दृष्ट्वा समुत्पन्ना पुरुषसिंहस्य चिन्ता । अहो नु खल्वेष कुमारोऽनन्यसदशोऽपि वाले चाण्डाल (प्राण) की यक्षदेवा नाम की पत्नी के गर्भ में पुत्र के रूप में आया। कालम से जन्म हआ। उसका नाम गिरिषेण रखा गया । वह कुरूप, जड़बुद्धि और दरिद्र था अतः दुःखित होकर समय बिता रहा था। समरादित्य पूर्वभव के संस्कारों के गुण से पुण्य के फल का अनुभव करता हुआ, बालक होने पर भी अबाल होने का आचरण करता हआ समस्त शास्त्र और कलाओं की सम्पत्ति से सुन्दर कुमारपने को प्राप्त हआ। पूर्वभव के अभ्यास से वह शास्त्रों में अनुरक्त रहकर अविरल चिन्तन करता रहता था, अनेक प्रकार के भावों का अनुमान करता था, भली प्रकार देखता था, तात्त्विक युक्तियों का मेल कराता था, समभाव से भावना करता था, श्रद्धा से बढ़ता था अर्थात् उसकी आस्था बढ़ रही थी, मार्ग का प्रयोग करता था और विरक्ति मार्ग पर गमन कर रहा था। इस प्रकार शास्त्र से युक्त तात्त्विक भावना के अनुसरण के बल से (उसे) जातिस्मरण हो गया। लोगों को (यह) ज्ञात नहीं हुआ। अनन्तर वह शुभभावों के अभ्यास, कर्म की हीनता, ज्ञान की विशुद्धता, विषयों की हेयता, शान्ति की उपादेयता, पापों की अविद्यमानता, जीव की शक्ति की उत्कटता और सिद्धि की प्राप्ति की समीपता के कारण राजलक्ष्मी का आदर नहीं करता था. शरीर के सत्कार में उद्यत नहीं था, अनेक प्रकार की क्रीड़ाओं को नहीं करता था, इन्द्रियों के विषयों का सेवन नहीं करता था, केवल संसार से विरक्तचित्त होकर शुभ ध्यान के योग से ही समय बिताता था। उसे उस प्रकार देखकर पुरुषसिंह को चिन्ता हुई। ओह ! यह कुमार चित्त में अनन्य सदृश होने, रूप में For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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