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नवमो भवो]
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वि चित्ते संदरो वि स्वेण पत्ते वि पढमजोवणे संगओ वि काहिं पेच्छंतो वि रायकन्नयाओ निरुवहओ वि देहेण जत्तो वि इंदियसिरीए रहिओ वि मुणिसणेणं न छिप्पए जोव्वणवियारेहि, न पेच्छए अद्धच्छिपेच्छिएण, न जंपए खलियवयणेहि, न सेवए गेयाइकलाओ, न बहु मन्नए भूसणाई, न घेप्पए मएण, न मच्चए अज्जक्याए, न पत्थए विसयसोरखं । ता किं पुण इमं ति । पुण्णसंभारजुत्तो य एसो, जेण दिट्ठो देवीए एयसंभवकाले पसत्थसुविगओ; गब्भसंगए एयम्मि नत्थि ज मे न संजायं । अओ भवियव्वमेयस्स महापइट्ठाए, पावियत्वमेयसंबंधणमम्हेहि पारत्तियं । ता एस एत्थुवाओ। करेमि से दुल्ललियगोटिसंगए निम्माए कलाहिं वियक्खणे रइकीलासु आराहए परचित्तस्स अद्धासिए मयणेण विसिटकुलसमुप्पन्ने पहाणमित्ते। तओ तेसि संसग्गीए संपाडिस्सइ मे परमपमोयं ति। चितिऊण कया कुमारस्स दुल्ललियगोटीचूडामणिभूया मुत्तिमंता विय महुमयणदोगुदुगाई असोयकामंकुरललियंगयप्पमुहा पहाणमित्ता। भणिया य राइणा--तहा तुहिं जइयत्वं, जहा कुमारो विसिट्ठ
चित्ते सुन्दरोऽपि रूपेण प्राप्तेऽपि प्रथमयौवने संगतोऽपि कलाभिः पश्यन्नपि राजकन्यका निरूपहतो. ऽपि देहेन युक्तोऽमीन्द्रियश्रिया रहितोऽपि मुनिदर्शनेन न स्पृश्यते यौवनविकारैः, न प्रेक्षतेऽर्धाक्षिप्रेक्षितेन, न जल्पति स्खलितवचनैः, न सेवते गेयादिकलाः, न बहु मन्यते भूषणानि, न गृह्यते मदेन, न मुच्यते आर्जवतया, न प्रार्थते विषयसौख्यम् । ततः किं पुनरिदमिति । पुण्यसम्भारयुक्तश्चषः, येन दृष्टो देव्या एतत्सम्भवकाले प्रशस्तस्वप्नः, गर्भ सङ्गते चैतस्मिन् नास्ति यन्मे न सञ्जातम् । अतो भवितव्यमेतस्य महाप्रतिष्ठया, प्राप्तव्यमेतत्सम्बन्धेनास्माभिः पारत्रिकम्। तत एषोऽत्रोपायः । करोमि तस्य दुर्ललितगोष्ठीसङ्गतानि निर्मातानि (निपुणानि) कलाभिविचक्षाणि रतिक्रीडासु आराधकानि परचित्तस्याध्याश्रितानि मदनेन विशिष्टकुलसमत्वन्नानि प्रधान मित्राणि । ततस्तेषां संसर्गेण सम्पादयिष्यति मे परमप्रमोदमिति । चिन्तयित्वा कृतानि कुमारस्य दुर्ललितगोष्ठीचडामणिभूतानि मूर्तिमन्तीव मधुमदनदोगुन्दकादीनि अशोककामाङ कुरललिताङ्गप्रमुखानि प्रधानमित्राणि । भणितानि राज्ञा तथा युष्माभिर्यतितव्यं यथा कुमारी विशिष्टलोकमार्ग प्रपद्यते ।
सुन्दर होने, कुमारावस्था प्राप्त होने, कलाओं से युक्त होने, राजकन्याओं को देखने, शरीर के निरुपहत होने, इन्द्रिय-लक्ष्मी से युक्त होने, मुनिदर्शन से रहित होने पर भी यौवन के विकारों से स्पृष्ट नहीं होता है। अधखुली आँखों से नहीं देखता है, स्खलित वचन नहीं बोलता है, गाने योग्य आदि कलाओं का सेवन नहीं करता है, भूषणों का आदर नहीं करता है, मद से गृहीत नहीं होता है, आर्जव (सरलता) को नहीं छोड़ता है और विषय-सुखों की प्रार्थना नहीं करता है। अत: यह क्या, यह पुण्य के भार से युक्त है; क्योंकि महारानी ने इसके उत्पन्न होने के समय में शुभ स्वप्न देखा था और गर्भ से युक्त होने पर वह कोई पदार्थ नहीं, जिसकी मुझे उपलब्धि नहीं हुई हो या जो पूरा नहीं हुआ हो । अत: इसकी महाप्रतिष्ठा होनी चाहिए, इसके सम्बन्ध में हमें पारलौकिक गति (सद्गति) प्राप्त करनी चाहिए । अतः यहाँ उपाय है । मैं (अब) उसके ललित गोष्ठियों से युक्त, कलाओं में विलक्षण, रतिक्रीड़ाओं में निपुण, दूसरे के चित्त की आराधना करने वाले, काम से अधिष्ठित तथा विशिष्ट कुलों में उत्पन्न ऐसे प्रधान मित्र बनाता हूँ। उनके संसर्ग से मुझे अत्यधिक प्रमोद होगा-ऐसा सोचकर प्रधान मित्रों को बनाया। राजा ने अशोक, कामांकुर, ललितांग प्रमुखों को कुमार का प्रधानमित्र बनाया। ये मित्र ललित गोष्ठी के चूड़ामणि थे और शरीरधारी वसन्त, कामदेव या उत्तम जाति के देव (के समान) थे। राजा ने उनसे कहा कि तुम लोगों को उस प्रकार का यत्न करना चाहिए जिससे कुमार विशिष्ट लौकिक मार्ग को प्राप्त
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