SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 346
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७६६ लोयमग्गं पवज्जइ । तेहिं भणियं - जं देवो आणवेइ । अक्ता कss दिया । उवगया वीसत्थयं । आढत्तो य णेहिं महरोवक्कमेण कुमारो, गायंति मणहरं, पढति गाहाओ, पुच्छंति वोणापओए, पसंसंति नाडयाइं; विद्यारेति कामसत्थं, दसति चित्ताई, वर्णेति सारसमिहुण्याई, निदंति चक्काई, कुणंति इत्थिकहं, दंसेति सरवराई, कारेंति जलकीड, निवेति उज्जाणेसु, पसाहिति सुंदरं, कीलंति डोलाहिं, रएंति कुसुमसत्थरे, थुणंति विसमबाणं ति । कुमारो उण पवड्ढमाणसंवेओ 'अहो एएसि मूढया ! कहं पुण एए पडिबोहियव्व' त्ति उवाचतापरो उवहसीलयाए पडिकूलमभणमाणो चिट्ठइ । एवं च अइवकंतो कोइ कालो । तेसि पडिबोहणत्थं तु fife नायपेच्छणाइ अब्भुवगयं कुमारेण, वड्ढिया पीई, नीया य परमवीसत्थयं । अन्नयाय एस एत्थ विसयाहिओ उवाओ' त्ति मंतिऊण परोप्परं कओ असोएण कामसत्थसंगो | भणियं च गण -- भो किपरं पुण इमं कामसत्थं । कामंकुरेण भणियं - भो किमेत्य पुच्छि - rai अविगलतिवग्गसाहणपरं ति । कामसत्यभणियपओयन्त्रणो हि पुरिसस्स सदारचित्ताराहणतैर्भणितम् - यद् देव आज्ञापयति । अतिक्रान्ताः कतिचिद् दिवसाः । उपगता विश्वस्तताम् । आरब्धश्च तैर्मधुरोपक्रमेण कुमारः, गायन्ति मनोहरम्, पठन्ति गाथाः, पृच्छन्ति वीणा प्रयोगान्, प्रशंसन्ति नाटकानि, विचारयन्ति कामशास्त्रम्, दर्शयन्ति चित्राणि वर्णयन्ति सारसमिथुनकानि, निन्दन्ति चक्रवाकान्, कुर्वन्ति स्त्रीकथाम्, दर्शयन्ति सरोवराणि कारयन्ति जलक्रीडाम्, निवेशयन्त्युद्यानेषु, प्रसाधयन्ति सुन्दरम् क्रीडयन्ति दोलामि:, रचयन्ति कसुमस्रस्तरान् स्तुवन्ति विषमबाणमिति । कुमारः पुनः प्रवर्धमानसंवेगः 'अहो तेषां मूढता, कथं पुन प्रतिबाधितव्याः' इत्युपायचिन्तापर उपरोधशीलतया प्रतिकूलमभणन् तिष्ठति । एवं चातिक्रान्तः कोऽपि कालः । तेषां प्रतिबोधनार्थं तु किञ्चिद् नाटकप्रेक्षणाद्यभ्युपगतं कुमारेण वृद्धा प्रोतिः, नीताश्च परमविश्वस्तताम् । अन्यदा च 'एषोऽत्र' विषयाधिक उपाय:' इति मन्त्रयित्वा परस्परं कृतोऽशोकेन कामशास्त्रप्रसङ्गः । भणितं च तेन - भोः किं परं पुनरिदं कामशास्त्रम् । कामाङ कुरेण भणितम् - भोः ! किमत्र प्रष्टव्यम्, अविकलत्रिवर्गसाधनपरमिति । कामशास्त्रभणितप्रयोगज्ञस्य हि पुरुषस्य स्वदारचित्ताराकरें । उन्होंने कहा- जो महाराज आज्ञा दें । कुछ दिन बीत गये । (वे मित्र) विश्वस्तता को प्राप्त हुए। उन्होंने कुमार के प्रति मधुर उपक्रम आरम्भ किये। वे मनोहर गाते थे, गाथाएँ पढ़ते थे, वीणा के प्रयोग पूछते थे, नाटकों की प्रशंसा करते थे, कामशास्त्र पर विचार करते थे, चित्र दिखलाते थे, सारस के जोड़ों का वर्णन करते थे । चकवों की निन्दा करते थे, स्त्रीकथा करते थे, सरोवर दिखलाते थे, जलक्रीड़ाएं कराते थे, उद्यानों में डेरा डालते थे, सुन्दर प्रसाधन करते थे, झूला झूलते थे, फूलों के बिस्तर बनाते थे और कामदेव की स्तुति करते थे । पुनः कुमार बढ़ी हुई विरक्तिवाला होकर -'ओह इनकी मूढ़ता, इन्हें पुन: कैसे प्रतिबोधित करें - इस उपाय की चिन्ता में रत रहते हुए अनुग्रह स्वभाववाले होने के कारण प्रतिकूल न कहते हुए स्थित रहते थे । इस प्रकार कुछ समय बीत गया । उनको प्रतिबोधित करने के लिए कुमार ने नाटक, प्रेक्षण आदि स्वीकार किये, प्रीति बढ़ी और अत्यधिक विश्वस्त हो गये । एक बार 'यह यहाँ विषयों में प्रवृत्ति का बहुत बड़ा उपाय है' ऐसी मन्त्रणा कर अशोक ने परस्पर काम का प्रसंग छेड़ दिया । उसने कहा - 'हे (मित्रो ! ) यह कामशास्त्र क्या है ?' कामांकुर ने कहा- 'अरे इसमें क्या पूछना, अविकल रूप से धर्म, अर्थ और काम का साधन करनेवाला कामशास्त्र है । कामशास्त्र में कहे हुए प्रयोग Jain Education International [ समराइच्चकहा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy