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________________ ८६० हविओ सबरेण आसो दावि ( मि ) ऊण मुक्को पउरदु ( दुरु) व्यापए से । तओ सुगंधीणि सुसायाणि कयल जंबीर फणसाईणि उवणेऊण फलाणि निवडिओ चलणेसु । भणियं च णेण - करेउ पसायं देवो माणग्गद्वार आहारगहणेणं । राइणा चितियं - अहो एयस्स अकारणवच्छलया, अहो विणओ, अहो वयविन्नासो, अहो ममोवरि भत्तिबहुमाणो, अहो महापुरिसचेट्ठियकायव्वुज्जत्तया, अहो सज्जनगरिसोति । ता करेमि एयस्स अहं आहारगहणेण धिरं । मा से वइमणस्सं संभाविस्सइ त्ति । पडिस्सुयं राइणा । महापसाओ त्ति काऊण पुणो वि पडिओ पाएसु सबरो । उवभुत्ताई फलाई राइणा । एत्थंतरम्मि परिणओ वासरो, अत्थमृवगओ सूरो, जाओ संझाकालो, कयं उचियकरिणज्जं राइणा । संपाडिओ से सबरेण वरतूलि अइसत्यंतो कुसुमसत्थरो । संजमिऊण तूणीरयं को त्यो माओ नरवइसमोवं । 'देव सुवसु वीसत्थो' त्ति भणिऊण पारद्धं पासेसु भमिउं । काण गुरुदेवयान मोक्कारं पसुत्तो राया चितयंतो सबरमहानुभावयं । तओ परिणया सव्वरी, उइओ अंसुमाली । समराइच्च कहा एत्थंतरम्मि तुरयपयमग्गेणं समागयं रायसेन्नं । विउद्धो राया बंदिबोलेण । तओ ढोइओ शबरेणाश्वो दामयित्वा मुक्तः प्रचरदूर्वाप्रदेशे । ततः सुगन्धीनि सुस्वादानि कदलजम्बीरपनसादीन्युपनीय फलानि निपतितश्चरणयोः । भणितं च तेन - करोतु प्रसादं देवो ममानुग्रहार्थमाहारग्रहणेन । राज्ञा चिन्तितम् - अहो एतस्याकारणवत्सलता, अहो विनयः, अहो वचनविन्यासः, अहो ममोपरि भक्ति बहुमान:, अहो महापुरुषचेष्टितक र्तव्योद्युक्तता, अहो सज्जनप्रकर्ष इति । ततः करोम्येतस्याहमाहारग्रहणेन धृतिम् । मा अस्य वैमनस्यं सम्भावयिष्यति इति । प्रतिश्रुतं राज्ञा । महाप्रसाद इति कृत्वा पुनरपि पतितः पादयोः शबरः । उपभुक्तानि फलानि राज्ञा । अत्रान्तरे परिणतो वासरः, अस्तमुपगतः सूर्यः, जातः सन्ध्याकालः, कृतमुचितं करणीयं राज्ञा । सम्पादितस्तस्य शबरेण वरतूलि - कामतिशयानः कुसुमस्रस्तरः । संयम्य तूणीरकं कोदण्डव्यग्रहस्तः समागतो नरपतिसमीपम् । 'देव ! स्वपिहि विश्वस्तः' इति भणित्वा प्रारब्धं पार्श्वयोर्भ्रमितुम् । कृत्वा गुरुदेवतानमस्कारं प्रसुप्तो राजा चिन्तयन् शबर महानुभावताम् । ततः परिणता शर्वरी, उद्गतोऽशुमाली । अत्रान्तरे नरगपदमार्गेण समागतं राजसैन्यम् । विबद्धो राजा बन्दिशब्देन । ततो ढौकितो घोड़े को स्नान कराया, रस्सी बाँधकर हरियाली वाले स्थान में छोड़ दिया। अनन्तर सुगन्धित अच्छे स्वादवाले केले, जॅमीरी, कटहल आदि फल लाकर चरणों में रख दिये और कहा - 'महाराज ! मुझ पर अनुग्रह करने के लिए आहार ग्रहण करने की कृपा कीजिए।' राजा ने सोचा - ओह इसका अकारण प्रेम, ओह विनय, ओह बातचीत करने की शैली, ओह मुझ पर भक्ति और सम्मान, ओह महापुरुष की चेष्टा तथा कर्त्तव्य के प्रति उद्यत होना, ओह सज्जनता की चरम सीमा । अतः आहार ग्रहण कर इसे धैर्य बँधाऊँगा । इसे वैमनस्य उत्पन्न न हो । राजा ने स्वीकार किया। बहुत बड़ी कृपा मानकर शबर पुनः पैरों में गिर गया। राजा ने फल खाये । इसी बीच दिन ढल गया, सूर्य अस्त हो गया, सन्ध्याकाल हो गया। राजा ने योग्य कार्य किया। उस शबर ने श्रेष्ठ रुई के गद्दे को भी मात करनेवाला फूलों का विस्तर बिछाया। तरकश उतारकर हाथ में धनुष लेकर राजा के पास आया - 'महाराज ! विश्वस्त होकर सोइए' ऐसा कहकर अगल-बगल भ्रमण करना प्रारम्भ कर दिया । गुरु और देवताओं को नमस्कार कर राजा शबर की महानुभावता का विचार करता हुआ सो गया । अनन्तर रात ढल गयी, सूर्य उदित हुआ । इसी बीच घोड़े के पदचिह्नों के रास्ते से राजा की सेना आ गयी । बन्दियों के शब्द से राजा जाग गया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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