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नवमो भवो ]
महासवइणा पंचवल्लहाण पहाणो तुरुक्कतुरओ । आरूढो तम्मि राया । चडाविऊण वल्हीए सबरनाथं गओ सनयरं । पविट्ठो महावद्धावणएहिं । मज्जिओ नरवई सह पल्लिनाहेण । कयं गुरुदेवयाणं उचियकर णिज्जं । तओ अग्गासणे निवेसिकण पल्लिनाह भुत्तं राइणा । भुत्तत्तरवेलाए सहत्थेण विलिपिऊणसबरनाहं परिहाविऊण देवयजुगलं दिन्नं से अणग्धेयं समत्थं नियमाहरणं । एत्थंतरम्मि समागया अत्यावेला । सूइयं कालनिवेयएण राइणो । उवविट्ठो अत्थाइया मंडवे सह सबरनाहेण । तओ पुच्छिओ अमच्चसामतेहि-देव साहेहि, को एस पुरिसो, जो एवं देवेण संपूइओ त्ति । तओ साहिओ राइना आसावहाराइओ पसुत्तदरिसणपज्जवसाणो पल्लिणाहचेट्ठियवृत्तंतो । तओ अत्थाइयपुरिसेहि परसिओ एस बहुपगारं । ठिया कंचि कालं नाडयपेक्रणयविणोएणं । समप्पिओ राइणा रायसुंदरी पहाणलक्खियाए । तज्जिया भणिया ) य णेण - अहो रायसुंदरि, उवचरियण्वो तए एस सन्भावसारं मम पाणदायगो । तीए भणियं - जं देवो आणवेइ । गहेऊण य तं पल्लिणाहं करम्मि गया नियभवणं एसा । आरूढा सत्तमवा (चा) उक्खभम्मि रद्दहरे । तं च सोउल्लोइयं
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महाश्वपतिना पञ्चवल्लभानां प्रधानस्तुरुष्कतुरग: । आरूढस्तस्मिन् राजा । आरोप्य वाह्लीके शबरनाथं गतः स्वनगरम् । प्रविष्टो महावर्धापनकैः । मज्जितो नरपतिः सह पल्लिनाथेन । कृतं गुरुदेवतानामुचितकरणीयम् । ततोऽग्रासने निवेश्य पल्लिनाथं भुक्तं राज्ञा । भुक्तोत्तरवेलायां स्वहस्तेन विलिप्य शबरनाथं परिधाप्य देवदूष्ययुगलं दत्तं तस्यानर्घ्यं समस्तं निजमाभरणम् । अत्रान्तरे समागता आस्थानिकावेला । सूचितं कालनिवेदकेन राज्ञः । उपविष्ट आस्था निकामण्डपे सह शबरनाथेन । ततः पृष्टोऽमात्यसामन्तैः - देव ! कथय, क एष पुरुषः, य एवं देवेन सम्पूजित इति । ततः कथितो राज्ञा अश्वापहारादिकः प्रसुप्तदर्शनपर्यवसानः पल्लिनाथ चेष्टितवृत्तान्तः । तत आस्थानिकापुरुषः प्रशंसित एष बहुप्रकारम् । स्थितौ कंचित् कालं नाटकप्रेक्षणकविनोदन | समर्पितो राज्ञा राजसुन्दर्याः प्रधानलक्षितायाः । तर्जिता ( भणिता ) च तेन - अहो राजसुन्दरि ! उपचरितव्यस्त्वया एष सद्भावसारं मम प्राणदायकः । तया भणितम् - यद् देव आज्ञापयति । गृहीत्वा च पल्लीनाथं करे गता निजभवनमेषा । आरूढौ सप्तमवायु (चतुः ) स्तम्भे रतिगृहे । तच्च ( तस्मिश्च ) लेपित
पूछा - 'महाराज, कहिए, यह
अनन्तर महान् अश्वपति, पाँच प्रिय घोड़ों में प्रधान तुरुष्क घोड़े को लाया गया। उस पर राजा सवार हुआ । वाह्लीक देश के घोड़े पर शबरराज को बैठाकर अपने नगर को गया । बड़े उत्सवों के साथ प्रविष्ट हुआ । राजा ने शबरनाथ के साथ नहाया । गुरु और देवताओं के योग्य कार्यों को किया । अनन्तर अग्रासन पर शबरनाथ बैठाकर राजा ने भोजन किया । भोजन के बाद अपने हाथ से शबरनाथ का विलेपन कर, दिव्यवस्त्र पहना कर उसे अपने समस्त आभूषण दिये। तभी राजसभा का समय हो गया। समय का निवेदन करनेवाले ने सूचित किया । राजसभा में शबरनाथ के साथ बैठा । अनन्तर अमात्य और सामन्तों ने पुरुष कौन है जो इस प्रकार महाराज के द्वारा सम्मानित किया गया है ?' अनन्तर से लेकर सोते हुए दिखलाई देने तक का वृत्तान्त शबरनाथ की चेष्टाओं सहित सुनाया। सभा के पुरुषों ने इसकी अनेक प्रकार से प्रशंसा की। कुछ समय तक नाटक तथा प्रेक्षणक से विनोद करते हुए दोनों कुछ समय ठहरे। राजसुन्दरी को प्रधानरूप से लक्षित कर राजा ने समर्पित कर दिया और उससे कहा - 'हे राजसुन्दरी ! यह के सार और मेरे प्राणदायक हैं । अतः योग्य सेवा करना ।' उसने कहा - 'जो महाराज की आज्ञा ।' शबरनाथ का हाथ पकड़कर यह अपने भवन में गयी । सात खण्डोंवाले चौकोर रतिगृह पर दोनों आरूढ़ हुए । वह दिव्य अंगराग (चूर्ण) और वस्त्र लपेटकर धवल बनाया गया था श्रेष्ठ चित्रों पर उदित हुए चन्द्रमा की
राजा ने घोड़े द्वारा अपहरण
सद्भाव
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