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________________ नवमो भवो ] ८८४ मुवगएणं फरिहाबंधेणं गयणयलविलग्गेणं पायारेगं विसेसिया धणयपुरि इड्ढोए भवणेहि य सुरिंदभवणाई। तम्मि य जियसत्तू नाम नरवई होत्था। अंतेउरप्पहाणा देवी नामेण जयसिरी अस्थि । सो तीए समं राया भोए भुजेइ सुरतुल्ले ॥१०४०॥ अह अन्नया कयाई पारद्धिनिमित्तनिग्गओ राया। चडिओ पवरतुरंगे जाए वल्हीयदेसम्मि ॥१०४१॥ वत्ते वि य जीववहे अवहरिओ तेण वाउवेगेण । छढो य महागहणे विझगिरिक्कंदरे राया ॥१०४२।। तो तम्मि विसमदेसे खलिओ आसस्स अइवेगो। एत्थंतरम्मि सन्नद्धबद्धकवएण दिट्ठो सबरेण सो राया। तेण य 'महाणुभावो कोइ एस पुरिसो पडिओ भीममहाडवीए, ता करेमि सम्ममचिओवयारं' ति चितिऊण काऊण तस्स पणामं गहिओ आसो खलीणम्मि, नीओ जलसमीवं । उत्तिण्णो नरवई; उप्पल्लाणिओ तुरओ, मज्जिओ राया, कलैः पाताल मुपगतेन परिखाबन्धेन गगनतल विलग्नेन प्राकारेण विशिष्य धनदपुरी ऋद्धया भवनश्च सुरेन्द्रभवनानि । तस्मिश्च जितशत्रर्नाम नरपति रभवत् । अन्तःपुरप्रधाना देवी नाम्ना जयश्रे रस्ति। स तया समं राजा भोगान् भुङ क्ते सुर तुल्यान् ।।१०४०।। अथान्यदा कदाचित् पापद्धिनिमित्तं निर्गतो राजा । आरूढः प्रवरतुरंगे जाते वाह्निकदेशे ॥१०४१।। वृत्तेऽपि च जीववधे अपहृतस्तेन वायुवेगेन। क्षिप्तश्च महागहने विन्ध्यगिरिकन्दरे गजा ॥१०४२॥ ततस्तस्मिन् विषमदेशे स्खलितोऽश्वस्यातिवेगः । अत्रान्तरे सन्नद्धवद्धकवचेन दृष्ट: शबरेण स राजा । तेन च 'महानुभावः कोऽप्येष पुरुषः पतितो भीममहाटव्याम्, ततः करोमि सम्यगुचितोपचारम्' इति चिन्तयित्वा कृत्वा तस्य प्रणाम गृहीतोऽश्व: खलीने, नीतो जलसमीपम् । उत्तीर्णो नरपतिः, उत्पल्याणितस्तुरगः, मज्जितो राजा, स्नपितः खाई, आकाश को छूनेवाले प्राकार, ऋद्धि में कुबेर की नगरी से विशिष्ट तथा इन्द्र के भवनो के समान भवनो से युक्त था। वहाँ पर जितशत्रु नाम का राजा हुआ। ___ उसकी समस्त अन्तःपुर में प्रधान जयश्री नाम की महारानी थी। वह राजा उसके साथ देवताओं के समान भोगों को भोगता था। एक बार राजा वाह्लीक देश में उत्पन्न हुए उत्कृष्ट घोड़े पर सवार होकर कदाचित् शिकार के लिए निकला । जीववध में लग जाने पर उस राजा को उस घोड़े ने वेग से अपहरण कर विन्ध्याचल की अत्यधिक भयंकर घाटी में छोड़ दिया। अनन्तर उस ऊँची-नीची भूमि में घोड़े का तीव्र वेग स्खलित हो गया ।।१४०-१०४२।। इसी बीच कवच को बाँध कर तैयार हुए शबर द्वारा वह राजा दिखाई दिया। उसने 'यह कोई महान प्रभाववाला पुरुष जंगल में भटक गया है अतः उचित सेवा करता हूँ'-ऐसा सोचकर प्रणाम कर घोड़े की लगाम पकड कर उसे जल के पास ले गया। राजा उतरा.घोडे की जीन उतारी, राजा ने स्नान किया, गबर ने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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