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________________ ८८८ [समराइच्चकहा "सव्वं गीयं विलवियं, सव्वं न विडंबियं । सव्वे आहरणा भारा, सव्वे कामा दुहावहा ॥" संदरा, धम्मसीले, परमत्थओ सिद्धा, सहं पि तेसिमेव; जेण ते ठिया णियसरूवे मक्का कम्मबंधणेण परिणिट्टियपओयणा वज्जिया मणोरहेहि खीणभवसत्ती जाणति सव्वभावे पेच्छंति परमत्थेण अपरोवयाविणो नेव्वाणकारणं बुहाणं विरहिया जम्ममरणेहि ति। किं वा न ईइसाणं सुहं, जओ नियत्ता सव्वावाहाओ परमाणंदजोएण । अवि य सिद्धस्स सहोरासी सव्वद्धापिडिओ जइ हवेज्जा। सोऽणंतवग्गभइओ सव्वागासे न माएज्जा ॥१०३८।। न वि अत्थि माणसाणं तं सोक्खं न वि य सव्वदेवाणं । जं सिद्धाणं सोक्खं अव्वावाहं उवगयाणं ॥१०३६॥ अन्न पि। अस्थि नायं, तं सणउ धम्मसोला। सुलोयणाए भणियंता अणुग्गहेउ भयवं अम्हे । भयवया भणियं-अत्थि खिइप्पइट्टियं नाम नयर, जं उत्तंगेहिं भवणदेउलेहि पायाल “सर्वं गीतं विलपितं सर्वं नाट्यं विडम्बितम् । सर्वे आभरणा भाराः सर्वे कामा दुःखावहाः ॥" सुन्दरा धर्मशीले ! परमार्थतः सिद्धाः, सुखमपि तेषामेव; येन ते स्थिता निजस्वरूपे मुक्ताः कर्मबन्धनेन परिनिष्ठितप्रयोजना वनिता मनोरथैः क्षीणभवशक्तयो जानन्ति सर्वभावान् पश्यन्ति परमार्थेन अरोपतापिनो निर्वाणकारणं बुधानां विरहिता जन्ममरणाभ्यामिति । किं वा नेदशानां सुखम्, यतो निवृत्ताः सर्वाबाधातः परमानन्दयोगेन । अपि च - सिद्धस्य सुखराशिः सर्वाद्धापिण्डितो यदि भवेत् । सोऽनन्तवर्गभक्ताः सर्वाकाश न मायात् । १०३८।। नाप्यस्ति मानुषाणां तत् सौख्यं नापि च सर्वदेवानाम् । यत् सिद्धानां सौख्यमव्याबाधामुपगतानाम् ।।१०३६।। अन्यदपि । अस्ति ज्ञातम्, तच्छृणोतु धर्मशीला । सुलोचनया भणितम्-ततोऽनुगृह्णातु भगवान् अस्मान् । भगवता भणितम् -अस्ति क्षितिप्रतिष्ठितं नाम नगरम्, यद् उत्तुङ्गर्भवनदेव "समस्त गीत विलाप है, समस्त नाट्य विडम्बना है, समस्त आभूषण भार हैं, समस्त काम दुःख लानेवाले हैं।'' धर्मशीले ! परमार्थरूप से सिद्ध और उनका सुख सुन्दर है जिससे वे अपने स्वरूप में स्थित हैं, कर्मों के बन्धन से मुक्त हैं, पूर्ण हए प्रयोजनोंवाले हैं, मनोरथों से रहित हैं, संसार की शक्ति को क्षीण कर चुके हैं, समस्त पदार्थों को यथार्थरूप से जानते देखते हैं, दूसरों को क्लेश नहीं पहुँचाते हैं, विद्वानों के निर्वाण के कारण हैं (तथा) जन्म और मरण से रहित हैं। अथवा ऐसे सिद्धों को क्या सुख नहीं है; वे तो समस्त पीड़ाओं अथवा मानसिक क्लेशों से रहित हैं और परम आनन्द से युक्त हैं। कहा भी है सिद्धों का सख यदि समस्त रूप में प्रत्यक्ष रूप से एकत्रित हो जाय तो वह समस्त आकाश के अनन्त वर्गों में भी नहीं समा सकता । अव्याबाधपने को प्राप्त हुए सिद्धों का जो सुख है वह सुख न तो मनुष्यों का है और न समस्त देवों का ॥१०३८-१०३६॥ दूसरी बात भी जानने योग्य है उसे धर्मशीले सुनें।' सुलोचना ने कहा- भगवान् हम लोगों पर अभुग्रह करें।' भगवान् ने कहा - 'क्षितिप्रतिष्ठित नाम का नगर था जो ऊंचे-ऊंचे भवनों, मन्दिरों, पाताल को प्राप्त हुई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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