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________________ नवमो भवो] ८८७ इटा इंदियविसया सद्दफरिसरसरूवगंधड्ढा। .. संधियधणू अणंगो सुसंगयाओ य देवीओ ॥१०३५॥ निच्चं च ताहि सहिया सिंगारागारचारुरूवाहिं । नट्टगुणगीयवाइयनिउणाहि मणाहिरामाहिं ॥१०३६॥ कोलंता सविलासं रइरसचउराहि जणियपरिओसं। रइसागरावगाढा गयं पि कालं न याति ॥१०३७॥ सुलोयणाए भणियं-भयवं, देवा देवसुहं च एवं भयवया सुंदरमावेइयं; ता कि इओ वि संदरयरा सिद्धा सिद्धसुहं च । भयवया भणियं-धम्मसीले, अइमहंतं खु एत्थ अंतरं। कि देवाण सुदरतं, जाणं जोओ अवसरीरेण, दारुणं कम्मबंधपारतंतं, उक्कडा कसाया, पहवइ महामोहो, अवसाणिदियाणि, गरुई विसयतण्हा, विचित्ता उक्करिसावगरिसा, उद्दामं माणसं, अनिवारिओ मच्चू, विरसमवसाणं ति । कोइसं वा एवंविहाणं सुहं । गंधव्वाइजोगो वि परमत्थओ दुक्खमेव । जओ इष्टा इन्द्रियविषयाः शब्दस्पर्शरसरूपगन्धाढ्याः । संहितधनू रनङ्गः सुसङ्गताश्च देव्यः ॥१०३५॥ नित्यं च ताभिः सहिताः शृङ्गाराकारचारुरूपाभिः । नाट्यगुणगीतवादिवनिपुणाभिर्मनोऽभिरामाभिः ॥१०३६॥ कीडन्तः सविलासं रतिरसचतुराभिनितपरितोषम् । रतिसागरावगाढा गतमपि कालं न जानन्ति ॥१०३७॥ सुलोचनया भणितम्-भगवन् ! देवा देवसुखं चैतद् भगवता सुन्दरमावेदितम, ततः किमितो. ऽपि सुन्दरतराः 'सद्धाः सिद्धसुखं च । भगवता भणितम्-धर्मशीले ! अतिमहत् खल्वत्रान्तरम् । किं देवानां सुन्दरत्वम् , येषां योगोऽध्रुवशरीरेण, दोरुणं कर्मबन्धपारतन्त्र्यम्, उत्कटा: कषायाः, प्रभवति महामोहः, अवशानीन्द्रिायणि, गुर्वी विषयतृणा, विचित्रा उत्कर्षापकर्षाः; उद्दाम मानसम्, अनिवारितो मृत्युः, विरसमवसानमिति । कीदृशं वैवंविधानां सुखम् । गान्धर्वादियोगोऽपि परमार्थतो दुःखमेव । यतः स्पर्श, रस, रूप और गन्ध से व्याप्त रहते हैं, कामदेव के धनुष तथा देवियों से युक्त रहते हैं। शृंगार और आकार से सुन्दर रूपवाली, नाट्य, गीत और वादित्र में निपुण तथा मन को सुन्दर लगनेवाली, रति के रस में चतुर होने के कारण सन्तोष उत्पन्न करनेवाली उन देवियों के साथ रतिसागर में डूबकर नित्य विलासपूर्वक क्रीड़ा करते हुए बीते हुए भी समय को नहीं जानते हैं।' १०३३-१०३७।। सुलोचना ने कहा - 'भगवन् ! देव और देवों का सुख भगवान ने अच्छी तरह बतला दिया तो क्या सिद्ध और सिद्धों का सुख इससे भी अधिक सुन्दर है ?' भगवान् ने कहा-'धर्मशीले ! इसमें बहुत बड़ा अन्तर है। देवों की सुन्दरता क्या है, जिनका अनित्य शरीर के साथ संयोग है, दारुण कर्मों के बन्धन की परतन्त्रता है, उत्कट कषायें हैं, बलवान् महामोह है, अवश इन्द्रियाँ हैं, विषयों के प्रति भारी तृष्णा है, नाना प्रकार के उत्कर्ष अपकर्ष हैं, उत्कट मन है, जिसका निवारण नहीं किया जा सकता ऐसा मरण है तथा जिनका अवसान नीरस होता है इस प्रकार के अंगों को सुख कैसा ? गीत आदि का योग भी यथार्थरूप से दुःख ही है; क्योंकि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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