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________________ छट्ठो भवो ] ५०७ सरसघण चंदणत्रणुच्छंग विविहपरिहास को लाणंदियभुयंग मिहुणरमणिज्जं ति । तओ आरुहिऊण रंगरलियभूयं तत्थ य बालकयलीपरिवेढियवियडपीढं सोहा विणिज्जिय सुरिंदभवणं उत्तुंगतोरणखंभनिनियवर सालिभंजियासणाहं मणहरालेक्खविचित्तवियडभित्ति रुरगववखवेइओसोहि निम्मलमणिकोट्टिमं सुरहिकुसुम संपाइयपूओवयारं च गओ सुलोयणसंतियं मंदिरं ति । दिट्ठो य ग गंधव्वदत्ताए सह वीणं वायंतो सुलोयणो । अब्भुट्टिओ सुलोयणेणं । संपाइओ से उचिओवयारो । पुच्छिओ सुलोयणेणं हेमकुंडलो - कुओ भवं कुओ वा एस महापुरिसो किंनिमित्तं वा भवओ आगमणपओयणं ति । तओ सुवेलाओ नियं धरणस्स सुवण्णभूमिमुवलग्भाइयं चितियरयणप्पदाणपज्जवसाणं साहियमागमणपओयणं । तेण वि उत्फुल्ललोयणेण पडिस्सुयं । तओ चिट्ठिऊण asarदिय गहियाइं पहाणरयणाइं । नीओ य णेण धरणो देवउरं । मुषको नयरबाहिरियाए, समप्पियाणि से रयणाणि । भणिओ य एसो । इहट्ठिओ चैव जायं पडिवालसुति । पडिस्सुयं धरणेण । गओ हेमकुंडलो । अन्यत्र सरसघनचन्दनव नोत्संगविविधपरिहासक्रीडानन्दितभुजङ्गमिथुन रमणीयमिति । तत आरुह्य रत्नशिखरं रत्नगिरितिलकभूतं तत्र च बालकदलीपरिवेष्टितविकटपीठं शोभाविनिर्जितसुरेन्द्रभवनम् उत्तुंगतोरणस्तम्भन्यस्तवरशालभञ्जिकासनाथं मनोहरालेख्यविचित्रविकटभित्ति रुचिरगवाक्षवेदिकोपशोभितं निर्मलमणिकुट्टिमं सुरभिकुसुमसम्पादितपूजोपचारं च गतः सुलोचनसत्कं मन्दिरमिति । दृष्टश्च तेन गन्धर्वदत्तया सह वीणां वादयन् सुलोचनः । अभ्युत्थितः सुलोचनेन । सम्पादितस्तस्योचितोपचारः । पृष्टः सुलोचनेन हेमकुण्डलः- कुतो भवान् कुतो वा एष महापुरुषः, किंनिमित्तं वा भवत आगमनप्रयोजनमिति । ततः सुवेलाद् निजं धरणस्य सुवर्णभूमिमुपलभ्यादिकं चिन्तितरत्नप्रदानपर्यवसानं कथितमागमनप्रयोजनम् । तेनापि उत्फुल्ललोचनेन प्रतिश्रुतम् । ततः स्थित्वा कतिपयदिवसान् गृहीतानि प्रधानरत्नानि । नीतश्च तेन धरणो देवपुरम् । मुक्तो नगरबाह्यायाम् । समर्पितानि तस्मै रत्नानि । भणितश्चैषः -- इहस्थित एव जायां प्रतिपालयेति । प्रतिश्रुतं धरणेन । गतो हेमकुण्डलः । ओर सरस और चन्दन-वन की गोद में विविध प्रकार परिहास क्रीड़ा से आनन्दित होते हुए सर्पयुगलों से जो रमणीय लग रहा था (ऐसे उस रत्नगिरि पर्वत पर चढ़े ) । उस रत्नागिरि के तिलकभूत रत्नशिखर पर चढ़कर जिसका विस्तीर्ण पृष्ठ भाग नये केलों के वृक्षों से परिवेष्टित है, शोभा में जिसने इन्द्र के भवन को जीत लिया है, ऊँचे द्वार स्तम्भ पर रखी हुई सुन्दर शालभञ्जिका से जो युक्त है, जिसकी बड़ी-बड़ी दीवारों पर मनोहर चित्र बने हैं, जो सुन्दर झरोखों और वेदिका से सुशोभित है, जहाँ का फर्श निर्मल मणियों से बना है, सुगन्धित फूलों से जहाँ पूजा की जा रही है, ऐसे सुलोचन के मन्दिर में गया । वहाँ पर गन्धर्वदत्ता के साथ वीणा बजाते हुए सुलोचन को देखा । सुलोचन उठा । उसका उचित सत्कार किया । हेमकुण्डल से सुलोचन ने पूछा- आप कहाँ से आये हैं और यह महापुरुष कहाँ से आये हैं ? आपके आने का क्या प्रयोजन है ? आदि । तत्र चित्रकूटाचल से अपना और धरण का स्वर्णभूमि की प्राप्ति से लेकर चिन्ता - रत्नप्रदान तक का आने का प्रयोजन कहा । उसने भी विकसित नेत्रों से ग्रहण किया। तब कुछ दिन रहकर प्रधान रत्नों को ग्रहण किया । वह धरण को देवपुर लाया। नगर के बाहरी भाग में छोड़ दिया । उसे रत्न समर्पित कर दिये । इससे कहायहाँ रहकर ही पत्नी की प्रतीक्षा करो। धरण ने अङ्गीकार किया । हेमकुण्डल चला गया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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