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________________ [ समराइच्चकहा तओ य तं पाविऊण महामहल्लुत्तुंगरयणसिहरुप्पंकनिरुद्धरविरहमग्गं विविहवर सिद्धविज्जाहरंगणाल लियगमणचलणालत्तयरसरं जियवित्थिण्णमुत्ता सिलायलं दरिविवरविणिग्गयनिज्भरभरंतझंकाररवायड्ढियदरियवणहत्थिनियरसमाइष्णवियडकडउद्देसं उद्दाममाहवीलयाहरुच्छंगनिद्दयरयायासखिन्नसुहप सुत्त विज्जाहरमिहुणं अइकोउहल्लेण आरुहिउं पयत्तो। किह चालियल वं गलबलीचंदणगंधुक्क डेण सिसिरेण । अवणिज्जंतपरिस्समसंतावो महरपवणेण ॥ ५३८ ॥ पेच्छंतो य रुइरदरिमंदिरामलमणिभित्तिसंकेतप डिमावलोयणपणयकु वियप सायण सुयदइयदंसणाहियकुवि विड्ढ सहियणो हसियमुद्धसिद्धगणासणाहं, कत्थइ य पयारच लियवरच मरिनियरनीहारामलचंद मऊ हनिम्मलुद्दामच मरचवल विक्खेववीइज्जमाणं, कत्थइ य नियंगबोवइयवियडघणगज्जियायण्णणुभंत धुय सड जाल नहयलुच्छंगनिमियकमदरियमयणाहरुंजियर वावूरिउद्देस, ५०६ अन्नत्थ ततश्च तं प्राप्य महामहोत्तुङ्ग रत्नशिखरसमूहनिरुद्धरविरथमार्गं विविधवर सिद्धविद्या_धराङ्गनाललितगमनचरणालक्तरस रञ्जितविस्तीर्णमुक्ता शिलातलं दरीविवरविनिर्गत निर्झर'झरत्झङ्काररवाकृष्टदप्त वनहस्तिनिकरसमाकीर्णविकटकटोद्देशम् उद्दाममाधवीलतागृहोत्संग निर्दयरतायासखिन्नसुखप्रसुप्तविद्याधरमिथुनम् अतिकुतूहलेनारोढुं प्रवृत्तः । कथम् - चालितलवङ्गलवलीचन्दनगन्धोत्कटेन शिशिरेण । अपनीयमानपरिश्रमसंतापो मधुरपवनेन ॥ ५३८ ॥ प्रेक्षमाणश्च रुचिरदरीमन्दिरामलमणिभित्तिसंक्रान्तप्रतिमावलोकन प्रणय कुपितप्रसादनोत्सुकदयितदर्शनाधिककुपितविदग्धसखीजनोपहसितमुग्धसिद्धाङ्गनासनाथम् कुत्रचिच्च प्रचारचलितवरचमरीनिकरनीहारामलचन्द्र मय् खनिर्मलोद्दामचामरचपलविक्षेपवीज्यमानम् नितम्बोपचितविकटघनगर्जिताकर्णनोद्भ्रान्तधुतसटाजालनभस्तलोत्संगन्यस्त क्रम दप्तं मृगनाथरुञ्जित रवापूरितोद्देशम्, अनन्तर रत्नों की बहुत ऊँची चोटियों के समूह द्वारा जहाँ सूर्य के रथ का मार्ग रोका गया था, अनेक सिद्ध विद्याधरों की श्रेष्ठ अंगनाओं के सुन्दर गमन करनेवाले पैरों में लगे हुए महावर से रँगी हुई बड़ी मुक्ता शिलाओं से युक्त, गुफाओं की खोल से निकलकर बहते हुए झरनों की झङ्कार के शब्द से मतवाले हाथियों के समूह से जिसका भयंकर प्रदेश व्याप्त था, उत्कट माधवी लतागृह की गोद में कठोर रति करने के कारण थककर सुख से सोये हुए विद्याधरों के जोड़े जहाँ पर थे, ऐसे उस पर्वत को पाकर अत्यन्त कुतूहल से उस पर चढ़ने लगे । कैमे - जिसने लोंग, लवलीलता और चन्दन की उत्कट गन्ध को प्रवाहित किया है ऐसी ठण्डी मधुर वायु के द्वारा परिश्रम की थकान को मिटाते हुए (उस पर्वत पर चढ़ने लगे ) || ५३८ ॥ सुन्दर गुफा मन्दिर की निर्मल मणिरचित दीवार में प्रतिबिम्बित प्रतिमाओं के अवलोकन के कारण प्रणय से कुपित मुग्ध सिद्धाङ्गनाओं को प्रसन्न करने के लिए जिनके पति उत्सुक हैं तथा (पतियों द्वारा मनाये जाने पर ) और अधिक कुपित हुई सिद्धाङ्गनाओं की जहाँ पर चतुर सखियाँ हँसी कर रही थीं ऐसी उन (सिद्धाङ्गनाओं) से वह युक्त था । कहीं-कहीं पर मार्ग में चलती हुई श्रेष्ठ चमरी गायों के समूह द्वारा तुपार के समान धवल और चन्द्रमा की किरणों जैसे निर्मल, चमकीले तथा चंचल चामरों के हिलने से जहाँ हवा की जाती थी; कमर भ्रमित होने पर उड़ते थे स्थान व्याप्त था, दूसरी पिछले भाग पर बढ़े हुए जिसके जटासमूह भयंकर बादल की गर्जना के सुनने से तथा आकाश की गोद में चरण रखते हुए गर्वीले सिंह की गर्जना के शब्द से जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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