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भविस्सइति । पस्यिं धरणेण । तओ घेतूण धरणं पयट्टो रयणपव्वयं पत्तो य महुरमारुय संबंदी कय लिसंघायं । संघापमिलिकपुरिसजवखपरिहुत्त वणसं डं ॥ ५३३ ॥ aris विविफलरस संतुविहंग सद्दगंभीरं । गंभीरजल हिग ज्जियहित्यपिओसत्त सिद्धरणं ॥ ५३४॥ सिद्धयणमिलियचारणसि हरवणारद्वमहरसंगीवं । संगीय मुरयघोसानंदियनच्चं तसि हिनियरं ॥ ५३५॥ सिहिनियर र वुक्कं प्रियप सन्नवर सिद्ध किन्नरिनिहाय । किन्नरिनिहाय सेवियलवंगलबलीहरच्छायं ॥ ५३६ ॥ छायावतमणोहरमणियडविल संतरयण निउरुंबं । बिटि उपेड सिह रुप्पेयं च रयणगिरिं ॥ ५३७॥
तीति । प्रतिश्रुतं धरणे । ततो गृहीत्वा धरणं प्रवृत्तो रत्नपर्वतम् ।
प्राप्तश्च मधुरमारुतमन्दान्दोलय कदलीसंघातम् । संघात मिलित किम्पुरुषयक्षपरिभुक्तवनषण्डम् ॥५३३|| वनषण्डविविधफल रससंतुष्टविहङ्ग शब्दगम्भीरम गभीरजलधिगर्जिततस्तप्रिया व सक्त सिद्धजनम् ॥५३४ ॥ सिद्धजनमिलितचारण शिखरव नारब्धमधुर संगीतम् । संगीतमुरजघोषानन्दितनृत्यच्छिखिनिकरम् ||५३५॥ शिखिनिकररवोत्कण्ठितप्रसन्नव रसिद्ध किन्नरीसमूहम् । किन्नरीसमूह सेवितलवङ्गलवली गृहच्छायम् ||५३६॥ छायावद्मनोहर मणितटविलसद्रत्ननिकुरम्वम् । निकुरम्बस्थितोन्नत शिखरोपेतं च रत्नगिरिम् ।। ५३७ ||
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धरण ने स्वीकार किया । तब धरण को लेकर रत्नपर्वत की ओर प्रवृत्त हुआ ।
जहाँ मधुर वायु के चलने से केलों का समूह हिल रहा था, किम्पुरुष तथा यक्षों का समूह मिलकर जहाँ के वनसमूह का भांग कर रहा था, वनसमूहों के अनेक प्रकार के फलों के रस से सन्तुष्ट पक्षियों के शब्द से जो गम्भीर था, जहाँ प्रिया का अलिंगन किए हुए सिद्धजन गम्भीर बादलों के गर्जन से त्रस्त थे, सिद्धजनों से मिले हुए चारण पर्वतशिखर के वनों में जहाँ मधुर संगीत का आरम्भ कर रहे थे, मृदंग के संगीत की आवाज से आनन्दित होकर जहाँ मोरों के समूह नाच रहे थे, मोरों के समूह के शब्द से उत्कण्ठित एवं अत्यधिक प्रसन्न होता हुआ जहाँ सिद्धों और किन्नरियों का समूह था । किन्नरियों के समूह जहाँ लोंग और लवली ( पीले रंग की एक लता) के गृहों की छाया का सेवन कर रहे थे, छावावाले मनोहर मणितटों से शोभायमान जहाँ का रत्नसमूह था, (रत्नों के) समूह पर स्थित उन्नत शिखरों से जो युक्त था उन्होंने (ऐसे ) रत्नागिरि को प्राप्त किया ।। ५३३-५३७॥
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