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________________ [समराइच्चकहा संपाविऊण फलहरनमियमहीरहनमिज्जमाणो व्व । परिणयखुडतबहुविहतरुकुसुमोवणियपूओ व्व ॥५३१॥ कमलमहुपाणसेवणजणियकलालावमुहलभमरेहि । कयसागयसम्माणो व्व अइगओ चूयतरुसंडं ॥५३२॥ उवविट्ठो दीहियातीरंमि, वीसमिओ मुहत्तयं, गहियाई सहयारफलाई, मज्जियं दोहियाए, कया पाणवित्ती। पुच्छिओ हेमकंडलेण धरणो-कहं तुम इमीए पाविओ ति। साहिओ ण जहट्टिनो सयलवुतंतो। हेमकुंडलेण भणियं-अहो से करहिययत्तणं; ता कि एइणा, भण कि ते करीयउ ति। धरणेण भणियं-कयं सयलकरणिज्ज; कि तु दुत्थिया मे जाया, ता तीए संजोयं मे करेहि। तओ 'रयणगिरीओ पहाणरयणसंजुयं संजोएमित्ति चितिऊण भणियं हेमकंडलेणं-करेमि संजोयं, किंतु अस्थि इहेव दीवंमि रयणगिरी नाम पव्वओ। तत्थ सलोयणो नाम किन्नरकुमारओ मे मित्तो परिवसइ । ता तं पेच्छिऊण नेमि तं देवउरमेव । तहिं गयस्स नियमेणेव तीए सह संजोगो सम्प्राप्य फलभरनतमहीरुहनम्यमान इव । परिणतत्रुटबहुविधतरुकुसुमोपनीतपूज इव ।। ५३१॥ कमलमधुपानसेवनजनितकलालापमूखरभ्रमरैः । कृतस्वागतसन्मान इव अतिगतश्चूततरुषण्डम् ॥५३२॥ ___उपविष्टो दीपिकातीरे, विश्रान्तो मुहूर्तकम्, गृहीतानि सहकारफलानि, मज्जितं दीपिकायाम्, कृता प्राणवृत्तिः। पृष्टो हेमकुण्डलेन धरणः-कथं त्वमनया प्राप्त इति । कथितस्तेन यथास्थितः सकलवृत्तान्तः । हेमकुण्डलेन भणितम्-अहो तस्याः क्रूरहृदयत्वम्, ततः किमेतेन, भण किं ते क्रियतामिति । धरणेन भणितम्-कृतं सकलकरणीयम, किन्तु दुःस्थिता मे जाया, ततस्तया संयोग मे कुरु । ततो 'रत्नगिरेः प्रधानरत्नसंयुतं संयोजयामि' इति चिन्तयित्वा भणितं हेमकुण्डलेन - करोमि संयोगम्, किन्तु अस्तीहैव द्वीपे रत्नगिरि म पर्वतः। तत्र सुलोचनो नाम किन्नरकुमारो मे मित्रं परिवसति । ततस्तं प्रेक्ष्य नयामि (वां देवपरमेव । तत्र गतस्य नियमेनैव तया सह संयोगो भविष्य फलों के भार से झुके हुए वृक्षों के द्वारा मानो नमस्कार किए जाते हुए, भली प्रकार फूलकर टूटे हुए अनेक प्रकार के वृक्षों के फलों के द्वारा मानों जहाँ पूजा की जा रही थी, कमलों के पराग का सेवन कर गुंजार करते हुए मुखर भौरों द्वारा ही जहाँ स्वागत और सम्मान किया जा रहा था तथा आम्रवृक्षों के वन जहाँ उत्कृष्टता को प्राप्त कर रहे थे (ऐसे द्वीप को वे प्राप्त हुए) ॥५३१-५३२॥ बावड़ी के किनारे बैठ गया, थोड़ी देर विश्राम किया, आम के फलों को ग्रहण किया, बावड़ी में स्नान किया, भोजन किया । हिमकुण्डल ने धरण से पूछा-तुम इस अवस्था को कैसे प्राप्त हुए ? उसने यथास्थित समस्त वृत्तान्त को कहा। हेमकुण्डल ने कहा-अहो उसकी क्रूरहृदयता, अतः इससे क्या ? कहो आपका क्या (कार्य) करें! धरण ने कहा-आपको जो करना उचित था, वह कर दिया, किन्तु मेरी पत्नी ठीक स्थान पर नहीं है। अतः उससे मिलाप कराइए। तब 'रत्नगिरि के प्रधान रत्न से युक्त करूँगा'-ऐसा सोचकर हेमकुण्डल के कहामिलाता हूँ, किन्तु इसी द्वीप में रत्नगिरि नाम का पर्वत है। वहाँ पर मेरा मित्र सुलोचन नामक किन्नरकुमार रहता है, लता उसे देखकर मैं तुम्हें देवपुर लिये जाता है। यहां पर जाकर नियम से उसके साथ मिलना होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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