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________________ छट्ठो भवो] ५०३ साहिओ हेमकुंडलेग, जहा जीविओ सो महाणुभावो त्ति। परितुट्ठो धरणो। हेमकुंडलो य घेत्तूण धरणं पयट्टो रयणदीवं । पत्तो य भुयंगगंधव्वसुंदरीजणारद्ध महुरगेयरवायड्ढियदिन्नावहाणनिच्चलट्ठियमयजूहं दरियवणकोलघोणाहिघायजज्जरियमहियलुच्छलियमुत्थाकसायसुरहिगंधवासियदिसायक्कं तौरतरुखुडियकुसुममयरंदवासियासेसविमलजलदुल्ललियरायहंसाउलसरसहस्कलिधं महल्लतरुसिहरावडियकुसुमनियरच्चियवित्यिण्णभूमिभागं उद्दामनागवल्लीनिवहसमालिगियासेसपूगफलीसंडं वियडघणसुरहिमंदारमंदिरारद्धविज्जाहरमिहुणरइसुहं दरियवणहत्थिपोवरकरायड्ढणभग्गसमतुंगगलंतचंदणवणं तीरासन्न ट्ठियघणतमालतरुवीहिओहसियजलहिजलं तरुणतरुवियडमणहरालवालयजलसुहियविविहविहंगनियररवापूरिउद्देसं सिद्धविज्जाहरालमुत्तुंगरयणगिरिसणाहं दीवं नामेण रयणसारं ति । अधि य रयणायरेण धणियं वियडतरंगुच्छलतबाहाहि । सव्वत्तो पियकामिणिरुइरसरीरं व उवगूढं ।।५३०॥ प्रज्ञप्त एष प्रत्यभिज्ञातश्च तेन हेमकुण्डल । पृष्टो धरणेन श्रीविजयवृत्तान्तः । कथितो हेमकुण्डलेन, यथा जीवितः स महानुभाव इति । परितुष्टोधरणः । हेमकुण्डलश्च गृहीत्वा धरणं प्रवृत्तो रत्नद्वीपम्। प्राप्तश्च भुजङ्गगान्धर्वसुन्दरीजनारब्धमधुरगेयरवाकृष्टदत्तावधाननिश्चलस्थितमृगयूथं दृप्तवनकोलघोणाभिघातजर्जरितमहीतलोच्छलितमुस्ताकषायसुरभिगन्धवासितदिक्चक्रं तीरतरुखण्डितकुसुममकरन्दवासिताशेषविमलजलदुर्ललितराजहंसाकुलसरःसहस्रकलितं महातरुशिखरापतितकुसुमनिकराचितविस्तीर्णभूमिभागम उद्दामनागवल्लीनिवहसमालिङ्गिताशेषपूगफलीषण्डं विकटघनसुरभिमन्दारमन्दिरारब्धविद्याधरमिथुनरतिसुखं दृप्तवनहस्तिपीवरकराकर्षणभग्नसमुत्तुङ्गगलच्चन्दनवनं तीरासन्नस्थितघनतमालतरुवीथ्युपहसितजलधिजलं तरुणतरुविकटमनोहरालवालजलसुहितविविधविहङ्गनिकररवापूरितोद्देशं सिद्धविद्याधरालयोत्तुङ्गरत्नगिरिसनाथं द्वीपं नाम्ना रत्नसारमिति । अपि च रत्नाकरेण गाढं विकटतरङ्गोच्छलबाहुभिः । सर्वतः प्रियकामिनीरुचिरशरीरमिव उपगूढम् ।। ५३०।। कि वह महानुभाव जीवित है । धरण सन्तुष्ट हुआ। धरण को लेकर हेमकुण्डल रत्नदीप गया। विद, विदूषक, और गन्धर्वसुन्दरियों के द्वारा आरम्भ किये हुए मधुर गीतों की ध्वनि से आकृष्ट, ध्यान लगाने के कारण जहाँ मृगों के झुण्ड निश्चल थे, गर्वीले वनसूकरों की नाक के आघात से जर्जरित पृथ्वीतल से ऊपर उछलते हुए नागरमोथा की कसैली सुगन्ध से जहाँ की दिशाएँ सुगन्धित थीं, किनारे के वृक्षों से टूटे हुए फूलों की पराग से सुगन्धित सारे निर्मल जल में लाड़-प्यार से बिगड़े हुए (नटखट) राजहंसों से आकुल हजारों तालावों से युक्त, विशाल वृक्षों की चोटियों से गिरे हुए फूलों का समूह जहाँ की भूमि पर फैला हुआ था, ऊँचे-ऊँचे चन्दन का वन जहाँ टूटकर गिरा हुआ था, तट पर स्थित घने तमालवृक्ष की पंक्ति के द्वारा जहाँ समुद्र के जल की हँसी की जा रही थी, तरुण पौधों की बड़ी-बड़ी मनोहर क्यारियों के जल को भलीभाँति ग्रहण करते हुए अनेक प्रकार के पक्षियों के समूह की आवाज से जिसकी भूमि परिपूर्ण थी ऐसे सिद्ध और विद्याधरों के निवासभूत ऊँचे रत्नगिरि पर्वत से युक्त रत्नसार नामक द्वीप को प्राप्त किया। और भी- समुद्र में भारी तरंगें उठ कर द्वीप के तटों से टकरा रही थीं। ऐसा प्रतीत होता था, मानो रत्नाकर अपनी तरंगरूप भुजाओं को फैलाकर द्वीपरूप प्रियकामिनी के मनोहर शरीर का गाढ़ आलिंगन कर रहा हो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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