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________________ ५०२ [ समराइच्चकहा देह, अत्थं वा मुयह, वावाएमि वा अहयं ति। धरणेण चितियं-अहो णु खलु मुयाविओ नियरिस्थं सुवयणो, उवयारो य एसो लच्छीसंपायणेण, एसा य एवं भणाइ। ता इमं एत्थ पत्तयालं, अहमेव पुरिसबली हवामि त्ति । चितिऊण भणिया वाणमंतरी-भयवइ, अयाणमाणेण मए एवं ववसियं । ता पसीय। अहमेव एत्थ बलिपुरिसो; मं पांडच्छसु ति। तीए भणियं- जइ एवं, ता घत्तेहि अप्पाणयं समहे, जेण ते वावाएमि त्ति । लच्छीए चितियं-अणुग्गिहीया भयवईए। तओ घरणेण भणियंक्यस्स सुवयण, पावियव्वा तए लच्छी मह गुरूणं ति । भणिऊण पवाहिओ अप्पा। विद्धो य णाए सूलेण, नीओ सुवण्णदोवं। उवसंता वाणमंतरी । पयट्ट जाणवत्तं देव उराहिमहं। __एत्थंतरंमि दिट्ठो य एसो कंठगयपाणो सुवेलाओ रयणदीवं पत्थिएणं हेमकुंडलेणं, पच्चभिन्नाओ य णेण । पुवपरिचिया य सा हेमकुंडलस्स वाणमंतरी । तओ हा किमेयमकज्जमणुचिट्टियं' ति भणिऊण मोयाविओ वाणमंतरीओ। पुवभणिओसहिवलयवइयरेण कयं से वणकम्मं । जीवियसेसेण स पन्नत्तो एसो पच्चभिन्नाओ य ण हेमकुंडलो। पुच्छिओ धरणेणं सिरविजयवृत्तंतो। मुञ्चत, व्यापादयामि वा अहमिति । [यद्येतेषामेकमपि न दत्त, ततोऽनर्थः, कृते च न तव भिननि प्रवहणम् ]धरणेन चिन्तितम्-अहो नु खलु मोचितो निजरिक्थं सुवदनः, उपकारी चैष लक्ष्मीसम्पादनेन, एषा चैवं भणति । तत इदमत्र प्राप्तकालम्, अहमेव पुरुषबलिर्भवामि इति । चिन्तयित्वा भणिता वानव्यन्तरी-भगवति ! अजानता मयैवं व्यवसितम्। ततः प्रसीद। अहमेवात्र बलिपुरुषः, मां प्रतीच्छेति । तया भणितम् यद्येवं ततः क्षिप आत्मानं समुद्रे, येन त्वां व्यापादयामीति । लक्ष्म्या चिन्तितम्-अनुगृहीता भगवत्या। ततो धरणेन भणितम्-वयस्य सुवदन ! प्रापयितव्या त्वया लक्ष्मीर्मम गुरूणामिति । भणित्वा प्रवाहित आत्मा। विद्धश्चानया शूलेन । नीतः सुवर्ण-द्वीपम् । उपशान्ता वानव्यन्तरी। प्रवृत्तं यानपात्रं देवपुराभिमुखम् । अत्रान्तरे दृष्टश्चैष कण्ठगतप्राणः सुवेलाद् रत्नद्वीपं प्रस्थितेन हेमकुण्डलेन, प्रत्यभिज्ञातश्च तेन । पूर्वपरिचिता च सा हेमकुण्डलस्य वानव्यन्तरी। ततो 'हा किमेतदकार्यमनुष्ठितम्' इति भणित्वा मोचितो वानव्यन्तर्याः । पूर्वभणितौषधिवलयव्यतिकरेण कृतं तस्य व्रणकर्म । जीवितशेषेण च अतः या तो पुरुष की बलि दो या धन छोड़ो, नहीं तो मैं मारती हूँ। यदि इनमें से एक भी वचन पूरा नहीं होता तो अनर्थ हो जायेगा। यदि पूरा किया जाता है तो मैं तुम्हारा जहाज नष्ट नहीं करूँगी। धरण ने सोचाअहो, सुवदन अपने धन को नहीं छोड़ेगा, लक्ष्मी को लाने के लिए यह उपकारी है और यह ऐसा कहती है अतः अब समय आ गया है, मैं ही नरबलि होऊँ। सोचकर वाणव्यन्तरी से कहा-भगवती ! अज्ञान के कारण मैंने ऐसा किया है। अत: प्रसन्न हो इए। मैं ही बलिपुरुष है, मुझे स्वीकार करो। उसने कहा-यदि ऐसा है तो अपने आपको समुद्र में फेंक दो, जिससे तुम्हें मार डाल। लक्ष्मी ने सोचा-देवी ने अनुग्रह किया। तब धरण ने कहा-मित्र सुवदन ! मेरे पूज्य पुरुषों के पास लक्ष्मी को पहुँचा देना-ऐसा कहकर अपने आपको गिरा दिया। इसने शूल से वेध किया और स्वर्णद्वीप ले गयी। वानव्यन्तरी सन्तुष्ट हुई । जहाज देवपुर की ओर चल दिया। इसी बीच सुवेल से रत्नद्वीप जाते हुए हेमकुण्डल ने इसे कण्ठगत प्राण देखा और पहिचान लिया। वह वानव्यन्तरी हेमकुण्डल की पूर्व परिचित थी। अतः 'हाय, यह क्या अकार्य कर डाला-' ऐसा कहकर वानव्यन्तरी ने छोड़ दिया। पहले कही गयी औषधिवलय के संसर्ग से उसकी मरहमपट्टी की। जीवन शेष रहने के कारण इसे होश आया और इसने हेमकुण्डल को पहिचान लिया। धरण ने श्रीविजय का वृत्तान्त पूछा। हेमकुण्डल ने कहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary:org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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