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[ समराइच्चकहा
धरणो पुण बाहिरियाए चैव कंचि वेलं गमेऊण पविट्ठो नयरं । दिट्ठो य टोप्पसेद्विणा । 'अहो कल्लाणागिई अदिट्ठपुव्वो एगागी य दीसइ, ता भवियव्यं एत्थ कारणेणं' ति चितिऊण अहिमयसं भासण पुरस्सरं नीओ णेण गेहं । कओ उवयांरो । पुच्छिओ य सेट्टिणा - 'कुओ तुमं' ति । साहिओ णेण मायंदिनिवासनिग्गमणाइओ देवउरसंपत्तिपज्जवसाणो निययवुसंतो । समप्पियाई राई । भणिओ य ण सेट्ठी । एवाई संगोवावसु त्ति । संगोवाविया ण सेट्टिणा ।
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इओ धरण म गंतरमेव समासासिया सुवयगेण लच्छी । भणिया य ण-सुंदरि इस एस संसारो, वियोगांवसाणाइ एत्थ संगयाई; ता न तए संतप्पियत्वं । न विवन्नो य एस तुझ अवि यमज्झति । तओ नियडिप्पहाणाए बाहजलभरियलोयणं जंपियं लच्छीए। तए जीवमामको मह संतावो त्ति । तओ अक्कले कइवपदिणे जाणवत्तसंठियं पहूयं सुवण्णमवलोइऊण चितियं सुवणेणं । विवन्नो खु सो तवस्ती, पभूयं च एवं दविणजायं, तरुणा य से भारिया रूववई य, संगया य में चित्तेण; ता किं एत्थ जुत्तं ति । अहवा इयमेव जुत्तं, जं इमीए गहणं ति । को नाम
. धरणः पुनः बाह्यायामेव काञ्चिद्वे लां गमयित्वा प्रविष्टो नगरम् । दृष्टश्च टोप्पश्रेष्ठिना । ‘अहो कल्याणाकृतिरदृष्टपूर्वं एकाकी च दृश्यते, ततो भवितव्यमत्र कारणेन' इति ि अभिमतसम्भाषणपुरस्सरं नीतस्तेन गेहम् । कृत उपचारः । पृष्ठश्च श्रेष्ठिना 'कुतस्त्वम्' इति । कथितस्तेन माकन्दीनिवासनिर्गमनादिको देवपुरसम्प्राप्तिपर्यवसानो निजवृत्तान्तः । समर्पितानि रत्नानि । भणितश्च तेन श्रेष्ठी - एतानि संगोपयेति । संगोपायितानि श्रेष्ठिना ।
_इतश्चधरणसमुद्रपतनसमनन्तरमेव समाश्वासिता सुवदनेन लक्ष्मीः । भणिता च तेन - सुन्दरि ! ईदृश एव संसारः, वियोगावसानान्यत्र सङ्गतानि ततो न त्वया संतप्तव्यम् । न विपन्नश्चैष तव, अपि च ममेति । ततो निकृतिप्रधानया बाष्पजलभृतलोचनं जल्पितं लक्ष्म्या - त्वयि जीवति को मम संताप इति । ततोऽतिक्रान्तेषु कतिपयदिनेषु यानपात्रसंस्थितं प्रभूतं सुवर्णमवलोक्य चिन्तितं सुवदनेन । विपन्नः खलु स तपस्वी, प्रभूतं चैतद् द्रविणजातम्, तरुणी च तस्य भार्या रूपवती च, संगता च मे चित्तेन, ततः किमत्र युक्तमिति । अथवा इदमेव युक्तम्, यदस्या ग्रहणमिति । को
धरण बाहर ही कुछ समय बिताकर नगर में प्रविष्ट हुआ। टोप्प श्रेष्ठी ने देखा । 'अहो, कल्याणकारक जिसकी आकृति है, पहले कभी नहीं देखा ऐसा यह अकेला दिखाई देता है अतः कोई कारण होना चाहिए' ऐसा सोचकर इष्ट वार्तालाप के साथ उसे घर ले गया । सेवा की। सेठ ने पूछा- तुम कहाँ से आये ? उसने माकन्दी में निवास, वहाँ से निकलना, देवपुर प्राप्ति तक के समस्त वृत्तान्त को कहा । रत्नों को समर्पित किया । उसने सेठ से कहा - इन्हें सुरक्षित रख लीजिए । सेठ ने रख लिये ।
ii इधर घरण के समुद्र में गिरने के पश्चात् सुवदन ने लक्ष्मी को समझाया। उसने कहा- सुन्दरी ! यह संसार ऐसा ही है, यहाँ संयोग का अन्त वियोग के रूप में होता है, अतः तुम्हें दुःखी नहीं होना चाहिए । यह तुम्हारी विपत्ति नहीं, अपितु मेरी विपत्ति है। तब कष्टपूर्वक आँखों में आँसू भरकर लक्ष्मी ने कहा- आपके जीते रहने पर मुझे कौन-सा दुःख है ! तब कुछ दिन बीत जाने पर जहाज पर स्थित प्रभूत स्वर्ण को देखकर सुवदन ने सोचा- वह बेचारा मर गया, यह धन प्रभूत है, उसकी पत्नी तरुणी और रूपवती है और मेरे चित्त के अनुकूल है, अतएव यहाँ पर क्या उचित है ? अथवा यही उचित है कि उसका ग्रहण किया जाय। कौन मूर्ख है जो स्वयं
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