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________________ ७०४ [ समराइच्चकहा निरुद्धो य पज्जोहारो। अइक्कंता कइवि दियहा। एत्थंतरम्मि कहंचि परिभमंतो समागओ तमुद्देसं वाणमंतरो। विट्ठो य ण वाहयालीगओ कुमारो । गहिओ कसाएहि । चितियं च णेण - एसो सो दुरायारो। अहो से धोरगरुयया, न तीरए एस अम्हारिसेहि वावाइउं । आढत्तं च णेण इमं दुग्गं। ता एयसामिणो सहायत्तणेण अवगरेमि एयस्स ति। चितिऊण दिट्ठो य णेण पासायतलसंठिओ विग्गहो। बहुमन्निओ विग्गहेणं। भणियं चणेण-किमत्थं पुण भवं इहागओ ति। वाणमंतरेण भणियं-तुह सहानिमित्तं । वेरिओ वि य मे एस दुरायारगुणचंदो, न सक्कुणोमि एयस्स उययं पेच्छिउं। अद्धवावाइओ य छुटटो महं एस अओज्झाए सनिओगवावडत्तणेण । न दिट्टो अंतराले, दिट्ठो य संपयं मलयपत्थिएण। ता अलं ताव मम मलयगमणेणं । समाणेमि अंतरे भवओ विग्गहं ति। विगहेण भणियं-जइ एवं, ता थेवमियं कारणं । किं बहुणा जंपिएणं । नेहि मं अज्ज रयणीए गुणचंदसमीवं, जेण अज्जेव समामि विग्गहं ति। वाणमंतरेण भणियं-सायत्तमेयं, तओ पयंगवित्तिकालो चेव एसो ति। संपहारिऊण सह पहाणपरियणेणं ठिओ गमणसज्जो विग्गहो। अइक्कतो वासरो, समागया मज्झरयणो। भणियं अतिक्रान्ताः कत्यपि दिवसाः। ___अत्रान्तरे कथंचित् परिभ्रमन् समागतस्तमुद्देशं वानमन्तरः । दृष्टश्च तेन वाह्यालीगतः कुमारः । गृहीतः कषायैः । चिन्तितं च तेन–एष स दुराचारः, अहो तस्य धीरगुरुकता, न शक्यते एषोऽस्मादृशापादयितुम् । आरब्धं चानेनेदं दुर्गम् (ग्रहीतुम्) । तत एतत्स्वामिनः सहायरवेनापकरोम्येतमिति । चिन्तयित्वा दृष्टश्च तेन प्रासादतलसंस्थितो विग्रहः । बहुमतो विग्रहेण । भणितं च तेन-किमर्थं पुनर्भवान् इहागत इति । वानमन्तरेण भणितम्-तव सहायनिमित्तम् । वैरिकोऽपि च मे एष दुराचारगुणचन्द्रः, न शक्नोम्येतस्योदयं प्रेक्षितुम् । अर्धव्यापादितश्च छुटितो मम॑षोऽयोध्यायां स्वनियोगव्यापृतत्वेन । न दृष्ट ऽन्तराले, दृष्टश्च साम्प्रतं मलयप्रस्थितेन । ततोऽलं तावन्मम मलयगमनेन । समाप्नोम्यन्तरे भवतो विग्रहविति । विग्रहेण भणितम्- यद्यवं ततः स्तोकमिदं कारणम् । किं बहुना जल्पितेन । नय मामद्य रजन्यां गुणचन्द्रसमीपम्, येनाद्यैव समाप्नोमि विग्रहमिति । वानमन्तरेण भणितम् – स्वायत्तमेतत् । ततः पतङ्गवृत्तिकाल एव एष इति सम्प्रधार्य सह प्रधानपरिजनेन स्थितो गमनसज्जो विग्रहः । अतिक्रान्तो वासरः, समागता मध्यरजनी । भणितं ग्राम, आकर और मडम्बों में फैला दिया । सघन झाड़ियों में छिप गये। रसद रोक दी । कुछ दिन बीत गये। इसी बीच किसी प्रकार घूमते हुए उस स्थान पर वानमन्तर आया। उसने अश्वक्रोडनक भूमि में कुमार को देखा । कषायों ने उसे जकड़ लिया और उसने सोचा-यह वही दुराचारी है। ओह ! इसकी धीरता और महानता, यह हम जैसों के द्वारा नहीं मारा जा सकता। इसने इस दुर्ग को लेना आरम्भ किया है । अतः इस दुर्ग के स्वामी की सहायता कर इसका अपकार करता हूँ-ऐसा सोचकर उसने महल के तल पर स्थित विग्रह के दर्शन किये। विग्रह ने उसका सत्कार किया और उससे कहा-'आप यहाँ किसलिए आये हैं ?' वानमन्तर ने कहा....'तुम्हारी सहायता के लिए । यह दुराचारी गुणचन्द्र मेरा वैरी है, इसका उदय नहीं देख सकता हूँ। अपने कार्य में लगे होने के कारण अयोध्या में इसे मैंने अधमरा ही छोड़ दिया था। बीच में नहीं दिखाई दिया, इस समय मलय को जाते हुए दिखाई दिया । अतः मेरा मलय को जाना व्यर्थ है । इस बीच आपके युद्ध को समाप्त करता हूँ।' विग्रह ने कहा- 'यदि ऐसा है तो यह कारण थोड़ा है। अधिक कहने से क्या, आज रात्रि में मुझे गुणचन्द्र के पास ले चलो, जिससे आज ही युद्ध समाप्त कर दें।' वानमन्तर ने कहा-'यह तो अपने अधीन बात है।' अनन्तर यह विग्रह पतंग के आचरण के समय ही प्रधान परिजनों के साथ निश्चयकर जाने के लिए तैयार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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