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________________ अट्ठमो भवो] ७०५ वाणमंतरेणं - 'एस देसयालो' ति । अप्पपंचमो उच्चलिओ विगहो । विज्जापहावेण नीओ वाणमंतरेण पवेसिओ गणचंदवासभवणे। दिट्टो य ण पसुत्तो कुमारो। भणिओ य धीरगरुयं-भो भो गुणचंद, मए सह विग्गहं काऊण वीसत्थो सुवसि । ता उठेहि संपयं, करेहि हत्थियारं ति । 'साहु साहु, भो विग्गह, साहु, सोहणो ते ववसाओ' ति भणमाणो उढिओ कुमारो। गहियमणेण खगं। एत्थंतरम्मि इमं वइयरमायण्णिऊण धाविया अंगरक्खा, निवारिया कुमारेण। भणिया य णभो भो साविया मम सरीरदोहयाए; न एत्थ अन्नेण पहरियध्वं । किं न आवज्जिया तुब्भे इमस्स इमिणा ववसाएण। ता तुम्भे चेव एत्थ विग्गहसहासया, विग्गही उण ममं सह इमेण । एत्थंतरम्मि वाणमंतरेण 'अरे खुद्दपुरिस, कोइसो तह इमिणा विग्गहो' त्ति भणमाणेण समाहओ खग्गलट्ठीए कुमारो। 'हण हण' ति भणमाणो य सपरियणो उवढिओ विग्गहो। छूढाइं ओहरणाई । सिक्काइसएण पायं वंचियाइं कुमारेण । जाओ य से भासरभावो। तओ उक्कडयाए पुण्णस्स पगिट्टयाए वोरियपरिणईए दुप्पधरिसयाए सामिभावस्स होणयाए विग्गहादीणं केसरिकिसोरएण विय भिदिऊण गयपीढं विक्खिविय विग्गहपुरिसे 'उवयारि' त्ति अदाऊण खग्गप्पहारं केसायड्ढणेण पाडिओ वानमन्तरेण - एष देशकाल इति । आत्-पञ्चम उच्चलितो विग्रहः । विद्याप्रभावेण नातो वानमन्तरेण प्रवेशितो गुणचन्द्र वासभवने । दृष्टश्च तेन प्रसुप्तः कमारः । भणितश्च धीरगुरुकम् । भो भो गुणचन्द्र! मया सह विग्रहं कृत्वा विश्वस्त: स्व पषि । तत उत्तिष्ठ साम्प्रतम, कुरु युद्धम् । 'साधु साधु भो विग्रह ! साधु, शोभनस्ते व्यवसायः' इति भणन्नुत्थितः कुमार: । गृहीतमनेन खड्गम् । अत्रान्तरे इम व्यतिकरमाकर्ण्य धाविता अङ्गरक्षकाः, निवारिताः कुमारेण । भणिताश्च तेन- भो भोः शापिता मम शरोरद्रोहतया, नावान्येन प्रहर्तव्यम् । किं नावजिता यूयमस्य नेन व्यवसायेन ? ततो यूयमेवात्र विग्रहसभासदः, विग्रहः पुनर्मम सहानेन । अत्रान्तरे वानमन्तरेण 'अरे क्षुद्रपुरुष! कीदशस्तवानेन विग्रहः' इति भणता समाहतः खड्गयष्टया कुमारः । 'जहि जहि' इति भणश्च सपरिजन उपस्थितो विग्रहः । क्षिप्तानि प्रहरण नि, शिक्षाति शयेन प्रायो वञ्चितानि कुमारण, जातश्च तस्य भासुरभावः । तत उत्कटतया पुण्यस्य प्रकृष्टतया व र्यपरिणत्या दप्प्रधर्षतया स्वामिभावस्य हीनतया विग्रहार्द नां के परिकिशोरकेणेव भिवा गजपठं विक्षि य (दुरीकृत्य) विग्रहपुरुष न् 'उपकारी इत्यदत्त्वा खड्ग हो गया। दिन बीत गया। मध्यरात्रि आयी। वानमन्तर ने कहा -- 'यह देश और काल है।' चार अन्य लोगों के थ विग्रह चल पडा। विद्या के प्रभाव से वानमन्तर ले गया और गणचन्द्र के वासभवन में प्रवेश करा दिया। उसने कुमार को सोते हुए देखा । धीरता और भारीपन से उसने कहा- 'रे रे गुणचन्द्र ! मेरे साथ विग्रह कर विश्वस्त होकर सो रहे हो ? अतः अब उठो, युद्ध करो।' 'हे विग्रह ! ठीक है, तुम्हारा निश्चय ठीक है'-- ऐसा कहकर कूमार उठा। उसने तलवार ली। तभी इस घटना को सुनकर अंगरक्षक दौड़े आये। कुमार ने (उन्हें) रोका और उनसे कहा-'हे हे ! तुम्हें मेरे शरीर के द्रोह की शपथ है, यहाँ अन्य कोई प्रहार न करे । क्या आप लोग इसके इस निश्चय से मना नहीं कर दिये गये हो ? अत: आप लोग ही अब लड़ाई के समासद हो । लड़ाई इसके साथ मेरी है।' इसी बीच वानमन्तर ने-'अरे क्षुद्रपुरुष ! तुम्हारी इसके साथ लड़ाई कैसी ?' ऐसा कहते हुए तलवार से कुमार पर प्रहार किया। ‘मारो-मारो', ऐसा परिजनों द्वारा कहते हुए विग्रह उपस्थित हुआ। शस्त्र फैके। शिक्षा के अतिशय से कुमार ने बचाव कर लिया और उसका तेज उत्पन्न हुआ । अनन्तर पुण्य की उत्कटता, शक्ति-परिणति की प्रकृष्टता, स्वामीपने की दुष्पवर्षता तथा विग्रहादि की हीनता के कारण सिंह के बच्चे द्वारा हाथी की पीठ का भेदन करने के समान, विषह के पुरुषों को दूर कर 'लपकारी है अतः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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