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________________ ७०६ [समराइच्चकहा विग्गहो। कओ से उवरि पाओ। एत्यंतरम्मि कुमारपरियणेण पाडिया विग्गहपुरिसा; 'जयइ कुमारो' त्ति समुद्धाइओ कलयलो। पणटो वाणमंतरो। चितियं च ण-अहो से पावकम्मस्स अणाउलत्तणं, अहो माहप्पपगरिसो, अहो 'कयन्नुया, अहो एगसारत्तणं; अहो मे अहन्नया, जमेवमवि एसो न वावाइओ त्ति । ता इमं एत्थ ताव पत्तयालं, जमओज्झाउरि गंतूण निवेएमि एयस्स विणिवायं, जणेमि एपपरियणस्स सोयं । एवमवि कए समाणे अवगयं चेव एयस्स त्ति। चितिऊण पयट्टो अओज्झामंतरेण । इओ य 'उठेहि भो महापुरिस उठेहि, कुणसु हत्थियार' ति भणिऊण मुक्को कुमारेण विग्गहो । न उत्थिओ एसो। भणियं च णेण - देव, कोइस देवेण सह हत्थियारकरणं । अजुत्तमेयं पुटिव पि, विसेसओ संपयं । विणिज्जिओ अहं देवेण। पत्ते वि वावायणे 'न वावाइओ' त्ति । अहिययरं वावाइयो त्ति । ता कि इमिणा असिलिट्टचेट्टिएणं । कुमारेण भणियं-उचियमेयं तुह महाणुभावयाए। अहवा किमेत्थ अच्छरोयं, ईइसा चेव महावीरा हवंति । विग्गहेण भणियं-देव, कोइसा मम महाणु प्रहारं केशाकर्षणेन पातितो विग्रहः । कृतस्तस्योपरि पादः । अत्रान्तरे कुमारपरिजनेन पातिता विग्रहपुरुषाः । 'जयति कमारः' इति समृद्धावित: कलकलः । प्रनष्टो वानमन्तरः । चिन्तितं च तेन --अहो तस्य पापकर्मणोऽनाकुलत्वम्, अहो माहात्म्यप्रकर्षः, अहो कृतज्ञता, अहो एकसा रत्वम्, अहो मेऽधन्यता, यदेवमप्येष न व्यापादित इति। तत इदमत्र प्राप्तकालम, यदयोध्यापुरी गत्वा निवेदयाम्येतस्य विनिपातम्, जनयाम्येतत्परिजनस्य शोकम् । एवमपि कृते सति अपकृतमेवैतस्येति चिन्तयित्वा प्रवृत्तोऽयोध्यामन्तरेण । इतश्च ‘उत्तिष्ठ भो महापुरुष ! उत्तिष्ठ, कुरु युद्धम्' इति भणित्वा मुक्तः कुमारेण विग्रहः । नोत्थित एषः । भणितं च तेन-देव ! कीदृशं देवेन सह युद्धकरणम् । अयुक्तमेतत्पूर्वमपि, विशेषतः साम्प्रतम् । वि िजतोऽहं देवेन । प्राप्तेऽपि व्यापादने 'न व्यापादितः' इति अधिकतरं व्यापादित इति । ततः किमनेनाश्लिष्टचेष्टितेन । कमारेण भणितम् -- उचितमेतत् तव महानुभावतायाः । अथवा किमत्राश्चर्यम् । ईदृशा एव महावीरा भवन्ति । विग्रहेण भणितम्-देव ! कीदृशा मम महानुभावता तलवार का प्रहार न कर, बाल खींचकर विग्रह को गिरा दिया। उस पर पैर रखा। इसी बीच कुमार के परिजनों ने विग्रह के पुरुषों को गिरा दिया। 'कुमार की जय हो' ऐसा कोलाहल उठा। वानमन्तर अन्तर्धान हो गया और उसने सोचा - ओह उस पापी की अनाकलता, ओह माहात्म्य की चरमसीमा. : अद्वितीय शक्ति, मैं अधन्य हैं जो कि इस प्रकार भी यह नहीं मारा गया। तो अब समय आ गया है कि अयोध्यापुरी जाकर इसके मरण का निवेदन करता हूँ और इसके परिजनों को शोक उत्पन्न करता हूँ- ऐसा करने पर इसका अपकार ही है-यह सोचकर अयोध्या के समीप आया। इधर 'हे महापुरुष ! उठो, युद्ध करो'- ऐसा कहकर कुमार ने विग्रह को छोड़ दिया। यह नहीं उठा। उसने (विग्रह ने) कहा --- 'महाराज ! महाराज के साथ कैसा युद्ध ! यह पहले भी अयुक्त था, विशेष रूप से इस समय । मुझं महाराज ने जीत लिया। मार पाने पर भी मारा नहीं-अतः अत्यधिक मार दिया। फिर इस घनिष्ठ सम्बन्ध की चेष्टा से क्या लाभ !' कुमार ने कहा-'यह तुम्हारी महानुभावता के अनुरूप है । अथवा इसमें क्या आश्चर्य, महावीर ऐसे ही होते हैं।' विग्रह ने कहा-'महाराज ! मेरी महानुभावता और महावीरता १. कम्मपन्नया-डे. ज्ञा.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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