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________________ ७०७ अट्ठमो भवो] भावया महावीरया य; किं वा इयाणि बहुणा जंपिएणं । विन्नवेमि देवं । देउ देवो समात्ति नियनरिंदाणं, वावाएंतु मं एए, पेक्खउ य देवो ममावि कावुरिसचेट्ठियं ति । कुमारेण भणियं- सोहणो कावुरिसो, जो एवमझवसइ पसुतं च सत्तुं विणा पहारेण बोहेइ। ता कि एइणा असंबद्धपलावेणं । दिन्ना तए मम पसुत्तावावायण पाणा, मए वि भवओ एस विसओ ति । गच्छउ भवं । विग्गहेण भणियं-जइ एवं, ता अन्नं पि देवं जाएमि । कुमारेण भणियं-साहीणं भवओ; जं मए आयत्तं ति । विग्गहेण भणियं-करेउ देवो पसायं मम ओलग्गाए । कुमारेण भणियं--'मा एवं भण; तायभिच्चो तुमं मम जेटभाउगो। ता जइ भवओ वि बहुमयं, ता तायसयासं चेव गच्छसु ति । पडिवन्नं विगहेण । कारावियं च ण वद्धावणयं ति । तद्दियहमेव उक्कोट्टियं दुग्गं । पयट्टो सह विग्गहेण. मओज्जाउरि कुमारो। एत्थंतरम्मि समागओ तत्थ भयवं समतणमणिमुत्तलेठ्ठकंचणो दयाल सव्वजोवेसु अणुवगियपरहियरओ विसुद्धेहिं चहिं नाणेहि 'पडिवोहसमओ गुणचंदस्स' ति वियाणिऊण समन्निओ महावीरता च, किंवेदानीं बहुना जल्पितेन, विज्ञपयामि देवम् । ददातु देवः समाज्ञप्ति निजनरेन्द्राणाम्, व्यापादयन्तु मामेते, प्रेक्षतां च देवो ममापि कापुरुषचेष्टितमिति । कुमारेण भणितमशोभनः कापुरुषः, य एवमध्यवस्यति, प्रसुप्तं च शत्रं विना प्रहारेण बोधयति । ततः किमेतेनासंबद्धप्रलापेन । दतास्त्वया मम प्रसुप्ताव्यापादनेन प्राणाः, मयाऽपि भवत एष विषय इति । गच्छत भवान । विग्रहेण भणितम्-यद्येवं ततोऽन्यदपि देव याचे। कुमारेण भणितम् -- स्वाधीनं भवतः, यन्मयाऽऽयत्तमिति। विग्रहेण भणितम्-करोतु देवः प्रसादं मम 'सेवायाः। कमारेण भणितम- मेवं भण, तातभत्यस्त्वं मम ज्येष्ठभ्रातृकः । ततो यदि भवतोऽपि बहुमतं ततः तातसकाशमेव गच्छेति । प्रतिपन्नं विग्रहेण। कारितं च तेन वर्धापनकमिति । तद्दिवसे एव उद्वेष्टितं दुर्गम् । प्रवृत्तः सह विग्रहेणायोध्यापुरी कुमारः। अत्रान्तरे समागतस्तत्र भगवान् समतृणमणिमुक्तालेष्ठुकाञ्चनो दयालुः सर्वजीवेषु अनुपकृतपरहितरतो विशद्धश्चतुभिर्ज्ञानः 'प्रतिबोधसमयो गुणचन्द्रस्य' इति विज्ञाय समन्वितो लब्धि कैसी ? अथवा इस समय अधिक कहने से क्या, महाराज से निवेदन करता हूँ । महाराज अपने राजाओं को आज्ञा दें कि ये मुझे मार डालें, महाराज ! मुझ कायर पुरुष की चेष्टा भी देखिए !' कुमार ने कहा-'अच्छा कायर पुरुष है जो यह निश्चय करता है और सोये हुए शत्रु पर प्रहार न कर, (पहले उसे) जगाता है ! अतः इस असम्बद्ध प्रलाप से क्या, सोते हुए मुझे न मारकर तुमने मेरे प्राण दे दिये, मेरा भी आपके प्रति यह विषय है । आप जाइए।' विग्रह ने कहा-'यदि ऐसा है तो महाराज दूसरी भी याचना करता हूँ।' कुमार ने कहा'आप स्वाधीन हैं, जो मेरे अधीन है (उसे अवश्य दूंगा)।' विग्रह ने कहा-'महाराज ! मेरी सेवा के लिए कृपा करें।' कुमार ने कहा-'ऐसा मत कहो, तुम पिताजी के सेवक हो, मेरे बड़े भाई । अतः यदि आपको इष्ट हो, तो पिताजी के पास चलें।' विग्रह ने स्वीकार किया। उसने उसी दिन महोत्सव कराया। उसी दिन दुर्ग खोल दिया। विग्रह के साथ कुमार अयोध्यापुरी को चल दिया।' इसी बीच भगवान् विजयधर्म नामक आचार्य आये। वे तृण, मणि, मोती, ढला और स्वर्ण में समदृष्टि रखने वाले थे, समस्त जीवों के प्रति दयालु थे, बिना उपकार किये ही दूसरों के हित में रत रहते थे, चार ज्ञानों १. मा एयं मा एय-डे. ज्ञा । २. ओलग्गा (दे.) सेवा, भक्तिः। ३. उक्कोट्टियं (दे ) उद्वेष्टितम्, रोधरहितमित्यर्थ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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