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________________ ७०८ [ समराइच्चकहा लद्धिमंतसाहहिं पुव्वपरियायमिहिलाहिवो विजयधम्मो नामायरिओ ति। ठिओ गुणसंभवाहिहाणे उज्जाणे । दिट्ठो कुमारपरियणेणं । निवेइयं कुमारस्स। देव, महातवस्सी इओ नाइदूरे तवोवणे चिदुइ। एयं सोऊण देवो पमाणं ति । महातवस्सि त्ति हरिसिओ कुमारो। गओ तस्स वंदणनिमित्तं सह विग्गहेण पहाणपरियणेण य। दिट्ठो य ण तदिवसमेव गुणसंभवम्मि उज्जाणे । धम्मो व मुत्तिमंतो आयरिओ विजयधम्मो ति॥७०८॥ सुमणाणंदियविबुहो बहुसउणनिसेविओ अमयसारो। चत्तभवखीरसायरनिलयरई तियसविडवो व्व ॥७०६॥ मत्साधुभिः पूर्वपर्यायमिथिलाधिपो विजयधर्मो नामाचार्य इति । स्थितो गणसम्भवाभिधाने उद्याने । दृष्ट: कुमारपरिजनेन । निवेदितं कुमारस्य-देव ! महातपस्वी इतो नातिदूरे तपोवने तिष्ठति । एतच्छ त्वा देवः प्रमाणमिति । महातपस्वीति हृष्टः कुमारः । गतस्तस्य वन्दननिमित्तं सह विग्रहेण प्रधानपरिजनेन च । दृष्टस्तेन तद्दिवसे एव गुणसम्भवे उद्याने । धर्म इव मूर्तिमान् आचार्यो विजयधर्म इति ॥७०८।। सुमनसाऽऽनन्दितविबुधो बहुशकुन (सगुण) निषेवितोऽमृतसारः । त्यक्तभवक्षीरसागरनिलयरतिस्त्रिदशविटप इव ॥७०६।। [आचार्यपक्षे सुमनसा-प्रशस्तमनसा आनन्दिता विबुधाः पण्डिता येन, बहुसगुणैः-बहुभिर्गणवद्भिः पुरुनिषवितः, त्यक्ता भवक्षीरसागरस्य निलये रतियन, अमृतं मोक्षस्तदेव सारो यस्य । कल्पवृक्षपक्षे--सुमनसा पुष्पेण आनन्दिता विबुधा देवा येन बहवः शकुनाः-पक्षिणस्तैनिषेवितः, अमृतो रसस्तेन सारः, भव इव क्षीरसागरः, विस्तीर्णत्वात्' त्यक्ता भवक्षीरसागरस्य निलये रतिर्येन] से विशुद्ध थे, 'गुणचन्द्र के प्रतिबोध का समय है'-ऐसा जानकर लब्धियुक्त साधुओं के साथ पहली अवस्था के मिथिला के राजा, विजयधर्म आचार्य आये । कुमार के परिजनों ने देखा। कुमार से निवेदन किया'महाराज ! यहाँ से पास में ही तपोवन में महातपस्वी विराजमान हैं।' यह कहकर महाराज प्रमाण हैं। 'महातपस्वी'-यह सुनकर कुमार हर्षित हुआ। उनकी वन्दना के लिए वह विग्रह और प्रधान परिजनों के साथ गया । उसने उसी दिन गुणसम्भव उद्यान में शरीरधारी धर्म के समान विजयधर्म आचार्य को देखा । उन्होंने अच्छे मन से विद्वानों (देवताओं) को आनन्दित किया था, मोक्ष ही उनका सार था, बहुत गुणवान् पुरुषों से वे सेवित थे, संसाररूपी क्षीरसागर में निवास करने की असक्ति को उन्होंने त्याग दिया था। इस प्रकार वे कल्पवक्ष के समान थे, क्योंकि कल्पवृक्ष भी पुषों से युक्त होता है, उससे देवगण आनन्दित होते हैं, बहुत से पक्षिगणों से वह सेवित होता है, रस से वह साररूप रहता है, संसार के समान क्षीरसागर में निवास करने की आसक्ति को उन्होंने छोड़ दिया है । ॥७०८-७०६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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