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________________ अट्ठमो भवो] ७०९ उयहि व्व धोरगरुओ सूरो व्व पणासियाखिलतमोहो। चंदो व्व सोमलेसो जिणिदवयणं व अकलंको ॥७१०॥ भवठिइनिसाए जेण य वियलियतावेण भव्वकमलाणं । निण्णासिओ असेसो अउव्वसूरेण तमनिवहो ॥७११॥ दळूण य तं जाओ सुहपरिणामो दढं कुमारस्स। परिचितियं च णेणं अहो णु खलु एस कयउण्णो ॥७१२॥ जो सव्वसंगचाई जो परपीडानियत्तवावारो। जो परहियकरणरई जो संसाराउ निम्विन्नो ॥७१३॥ ता वंदामि अहमिणं भयवंतं तह य पज्जवासामि । साहूण दंसणं पि हु नियमा दुरियं पणासेइ ॥७१४॥ एवं च चितिऊणं विहिणा सह विग्गहेण तो भयवं । अहिवंदिओ य णेणं आयरिओ सपरिवारो त्ति ॥७१५॥ उदधिरिव धीरगुरुक: सूर इव प्रणाशिताखिलतम ओघः । चन्द्र इव सौम्यलेश्यो जिनेन्द्रवचनमिवाकलङ्कः ।७१०॥ भवस्थितिनिशायां येन च विगलिततापेन भव्यकमलानाम । निर्णाशितोऽशेषोऽपूर्वसूरेण तमोनिवहः ॥७११॥ दृष्ट्वा च तं जातः शुभपरिणामो दृढं कुमारस्य । परिचिन्तितं च तेन अहो नु खल्वेष कृतपुण्यः ।।७१२।। यः सर्वसङ्गत्यागी यः परपीडानिवृत्तव्यापारः । यः परहितकरणरतियः संसाराद निविण्णः ।।७१३।। ततो वन्देऽहमिमं भगवन्तं तथा च पर्यपासे । साधूनां दर्शनमपि खलु नियमाद् दुरितं प्रणाशयति ॥७१४॥ एवं च चिन्तयित्वा विधिना सह विग्रहेण ततो भगवान् । अभिवन्दितश्च तेन आचार्यः सपरिवार इति ॥७१५।। जैसे समुद्र धीर और गम्भीर होता है, उसी प्रकार वे धीर और गम्भीर थे। जिस प्रकार सूर्य अन्धकार समूह को नष्ट कर देता है, उसी प्रकार उन्होंने पापों को नष्ट कर दिया था। चन्द्रमा जिस प्रकार सौम्य प्रवृत्ति वाला होता है, उसी प्रकार वे भी सौम्यवृत्ति वाले थे। जिनेन्द्र भगवान् के वचन जिस प्रकार निष्कलंक होते हैं, उसी प्रकार वे भी निष्कलंक थे। वे ऐसे अपूर्व सूर्य थे, जिसने संसार की स्थितिरूप रात्रि में भव्यजीवरूप कमलों का सन्ताप गलाकर समस्त अज्ञान अन्धकार का नाश कर दिया था। उन्हें देखकर कुमार का अत्यधिक शुभभाव हुआ। उसने सोचा ओह ! ये पुण्यवान हैं जिन्होंने समस्त आसक्तियों का त्याग कर दिया है, जो दूसरों को पीड़ा पहुंचाने के कार्य से अलग हैं, जिनकी दूसरों का हित करने में रुचि है तथा जो संसार से उदासीन हैं -ऐसे इन भगवान् को मैं प्रणाम करता हूँ, उपासना करता हूँ। 'साधुओं का दर्शन भी नियम से पापों को नष्ट कर देता है। यह सोचकर विधिपूर्वक विग्रह के साथ उस कुमार ने सपरिवार भगवान् आचार्य की वन्दना की ॥७१०-७१५॥ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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