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________________ अट्ठमो भवो ] विय 'कुमारो सत्रमागओ' त्ति विवाणिऊण समस्सिओ दुग्गं । ठिओ रोहगसंजत्तीए । रोहिओ कुमारेण । बिइयदि य उक्कडयाए अमरिसस्त अणन्भत्थयाए नीईगं भिच्चयाए विग्गहस्स सन्निहियाए सामिणो अल्लियणियाववएसेण असाहिऊण कुमारस्स समारद्धो समंतहरो ( समरो) । पट्टमाओहणं । विसमयाए दुग्गस्स पीडिज्जमानं पि कुमारसेन्नं अभग्गमाणपसरं ति अहिययरमाढतं जुज्झि । जाओ महासंगामो । विपाणिओ कुमारेण । निसामिओ नेणं । निर्यात्तियं कहकवि सेन्नं । भणिया य रायउत्ता - अजुत्तमिमं अयत्तसज्झे पओयण अत्ताणमायासिउं । समस्सिओ ताव एसो दुग्गं । रोहियं चिमं अम्हेहिं । न एत्थ अवसरो पलाइयव्वस्स । इट्ठा य मे कुलउत्तया, न बहुमओ तेसिनासो । सामो य पढमो नोईणं । अप्पो य एसों विग्गहो भुत्तो य ताएणं ठिओ संबंधिपक्खे | ता न जुत्तमेयमि एगपए पोरुसं दंसेउ । आढतोय अविणयनासणोवाओ। अओ मम सरीरदोहयाए साविया तुभे, जहा पुणो वि एरिसं न कायव्वं ति । तेहि भणियं - जं देवो आणवेइ । विसालबुद्धिणा उवलो विसओ । विद्दण्णाई गामागरमडंबाई रायपुत्ताणं । निरुद्धाई गाढगुम्मयाई, च 'कुमारः स्वयमागतः' इति विज्ञाय समाश्रितो दुर्गम् । स्थितो रोधकसंयात्रया । रुद्धः कुमारेण । द्वितीय दिवसे च उत्कटतयाऽमर्षस्य, अनभ्यस्ततया नीतीनां भृत्यतया विग्रहस्य, सन्निहिततया स्वामिनो अर्पितनिजव्यपदेशेन अकथयित्वा कुमारं समारब्धः समरः । प्रवृत्तमायोधनम् । विषमतया दर्गस्य पीड्यमानमपि कुमारसैन्यमभग्नमानप्रसरमित्यधिकतरमारब्धं योद्धम् । जातो महासंग्रामः । विज्ञातः कुमारेण । निशा मितस्तेन । निवर्तितं कथं कथमपि सैन्यम् । भणिताश्च राजपुत्राः । अयुक्तमिदमयत्नसाध्ये प्रयोजने आत्मानमायासयितुम् । समाश्रितस्तावदेष दुर्गम् । रुद्धं चेदमस्माभिः । नात्रावसरः पलायितव्यस्य । इष्टाश्च मे कुलपुत्रकाः, न बहुमतस्तेषां नाशः । साम च प्रथमं नीतीनाम्, अल्पश्च विग्रहो भुक्तश्च तातेन स्थितः सम्बन्धिपक्षे । ततो न युक्तमेतस्मिन्नेकपदे पोरुषं दर्शयितुम् । आरब्धश्च अविनयनाशनोपायः । अतो मम शरीरद्रोहतया शापिता यूयम्, यथा पुनरपीदृशं न कर्तव्यमिति । तैर्भणतम् - यद् देव आज्ञापयति । विशालबुद्धिनोपलब्धो विषयः । वितीर्णानि ग्रामाकरमडम्बानि राजपुत्राणाम् । निरुद्धानि गाढगुल्मकानि निरुद्धश्च पर्यवहारः । ७०३ राजा विग्रह के ऊपर गया। एक माह में उसके देश में पहुँच गया । विग्रह ने भी ' कुमार स्वयं आये हुए हैंऐसा जानकर दुर्ग का आश्रय ले लिया । तैयारी करता हुआ ठहरा रहा । कुमार ने रोका। दूसरे दिन क्रोध की उत्कटता, नीतियों की अनभ्यस्तता, विग्रह का सेवकपना, स्वामी की समीपता और अपना व्यवहार अर्पित करने से कुमार से बिना कहे ही युद्ध आरम्भ हो गया । योद्धा प्रवृत्त हो गये । दुर्ग की विषमता से पीड़ित होने पर भी कुमार की सेना विस्तार न तोड़ते हुए अधिक तेज युद्ध करने लगी। भीषण संग्राम हुआ । कुमार ने जाना । उसने रोका। जिस किसी प्रकार सेना को रोका। राजपुत्रों से कहा- 'बिना प्रयत्न के साध्य इस प्रयोजन में अपने को कष्ट देना ठीक नहीं है । इसने दुर्ग का आश्रय कर लिया और इसे हमने रोक लिया है। अब भागने का यहाँ मौका नहीं है । मुझे कुलपुत्र इष्ट हैं, उनका नाश ठीक नहीं है । नीतियों में पहली नीति सामनीति है । यह राजा विग्रह छोटा है। पिता जी द्वारा खिलाया जाकर सम्बन्धी पक्ष में स्थित है। अतः एक बार पौरुष दिखाएँ तो भी ठीक नहीं है । अविनय के नाश का उपाय आरम्भ हुआ है अतः मेरे शरीर के द्रोह की आप लोगों को शपथ, आप लोग पुनः ऐसा न करें।' उन्होंने कहा - महाराज जैसी आज्ञा दें । विशालबुद्धि ने देश पा लिया। राजपुत्रों को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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