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________________ ८२४ मज्जति जणा केई देवाण करेंति केइ पूयाओ । anuts देति केई गुरुसुस्सूसापरा केई ||८| मोत्तूण भाणजोयं मुणओ वि जणस्सऽणुग्गहट्ठाए । fusaणत्थमन्नं जोयंतरमो पवज्जंति ॥ ६६ ॥ इय नयरीए नराहिव जणसमुदाओ विसुद्ध किरियाए । तुह मणुयजम्मसारं परमं सूएइ कल्लाणं ॥ १०००॥ तओ एयमायण 'अए कहं मज्भण्हसमओ'त्ति जंपियं राहणा - कुमार, संपाडेहि उचियकरणिज्जं । 'जंताओ आणवेह' त्ति पणमिऊण निग्गओ कुमारो। भणियं च राहणा- भो भो अमच्चा, करावेह तुम्भे समंतओ कुमारविद्धिसरिसं वद्धावणाई | अमचेहि भणियं जं देवो आणवेइ । पारद्धं च णेहि, दवावियं महादाणं, कराविया नयरिसोहा, पूइयाओ देवयाओ, निवेदयं पउराण, सद्दावियाई पायमूलाई, दवाविद्या आणंदभेरी, पूराविया हरिससंबा, विन्नत्तमंतउराण, समाहूया राइणो, निउत्ताइं पेच्छणयाई । तओ थेववेलाए चेव पहट्टपउरकलयलरवं पणच्चतेहि मज्जन्ति जनाः केऽपि देवानां कुर्वन्ति केऽपि पूजाः । दानादि ददति केऽपि गुरुशुश्रूषापराः केऽपि ॥८॥ मुक्त्वा ध्यानयोगं मुनयोऽपि जनस्यानुग्रहार्थम् । पिण्डग्रहणार्थ मन्यद् योगान्तरं प्रपद्यन्ते ॥ ६६ ॥ इति नगर्यां नराधिप ! जनसमुदायो विशुद्ध क्रियया । [समराइका तव मनुजजन्मसार परमं सूचयति कल्याणम् ॥ १०००॥ तत एवमाकर्ण्य 'अरे कथं मध्याह्नपमयः' इति जल्पितं राज्ञा - कुमार, सम्पादय उचितकरणोयम् । 'यत् तात अज्ञापयति' इति प्रणम्य निर्गतः कुमारः । भणितं च राज्ञा - भो भो अमात्याः ! कारयत यूयं समन्ततः कुमारवृद्धिसदृश वर्द्धापनादि । अमात्यैर्भणितम् - यद् देव आज्ञापयति । प्रारब्धं च तः, दापितं महादानम्, कारिता नगरीशोभा, पूजिता देवताः, निवेदितं पौराणाम्, शब्दायितानि पात्रमूलानि, दापिताऽऽनन्दर्भरी, पूरिता हर्षशङ्खा, विज्ञप्तमन्तःपुराणाम् । समाहूता राजानः, नियुक्तानि प्रेक्षणकानि । ततः स्तोकवेलायामेव प्रहृष्टपोरकलकलरवं प्रनृत्य क्रिया के प्रति प्रवृत्ति कर रहा है। कुछ लोग स्नान कर रहे हैं, कुछ देवों की पूजा कर रहे हैं, कुछ लोग दान दे रहे हैं, कुछ लोग गुरु की सेवा में रत हैं । ध्यानयोग को छोड़कर मुनि भी लोगों पर अनुग्रह करने के लिए भोजन ग्रहण करने हेतु दूसरे योग को प्राप्त हो रहे हैं। इस प्रकार हे राजन् ! नगरी में विशुद्ध क्रिया के द्वारा जनसमुदाय आपके उत्कृष्ट मनुष्यजन्म के साररूप कल्याण को सूचित कर रहा है ।। ६६७ १०००|| Jain Education International अनन्तर यह सुनकर - 'ओह, क्या मध्याह्न समय हो गया है ?' राजा ने 'करो।' जो आज्ञा पिताजी-ऐसा कहकर, प्रणाम कर, कुमार निकल गया। आप सभी लोग चारों ओर कुमार की बुद्धि के अनुरूप महोत्सवादि कराओ।' जो आज्ञा ।' उन्होंने प्रारम्भ कर दिया, अत्यधिक दान दिलाया गया, नगरी की शोभा पूजा की गयी । नगरवासियों से निवेदन किया गया, पात्रमूल (नर्तकों की एक जाति) बुलायी गयी । आनन्द की भेरी बजवायी गयी । हर्ष के शंख बजाये गये, अन्तःपुरिकाओं से निवेदन किया गया । राजाओं को बुलाया गया, खेल-तमाशे कराये गये । अनन्तर थोड़ी ही देर में, जबकि नगरवासी हर्षित होकर कोलाहल की ध्वनि कर रहे For Private & Personal Use Only कहा- 'कुमार ! योग्य कार्यों को राजा ने कहा - 'हे हे मन्त्रियो ! मन्त्रियों ने कहा - " महाराज की करायी गयी, देवताओं की www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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