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________________ नवमो भवो] ८२३ लोयधम्मो, कायव्वा कुसलसंतती, जइयव्वं परोवयारे, अणुयत्तियन्वो कुलक्कमो । एवं च अन्भत्ये लोयधम्मे परिणए एगतेण निप्फन्ने पोरसे पइट्ठिए वंसम्मि जाणिए लोयसारे परिणए वयम्मि अवगएहिं उवद्दवेहि गुणभायणीकए अप्पाणे जुत्तं विसुखधम्मासेवणं । ता सोहणमणचिट्टियं कुमारेण । एवमेव भवओ परिणामसुंदरं भविस्सइ । एत्थंतरम्मि कच्छंतरगएण हरिसविसेसओ महया सद्देण जंपियं सिद्धत्थपुरोहिएण-भो अलं संदेहेण, अवस्समेव भविस्सइ । अणंतरं च वियंभिओ मंगलतूरसहो, गलगुलियं मत्तहस्थिणा, उग्घुट्टो जयजयारवो बदिलोएण । 'अणुगूलो सउणसंघाओ' ति हरिसिओ राया। भणियं च ण-कुमार, अवस्समेव एयं एवं हविस्सइ, अणुगलो सउणसंघाओ। अन्नं च, विसुद्धधम्मो विय कारणं चेव तुमं परमसुंदराण । गहियसउणत्थो हरिसिओ कुमारो। भणियं चण-नत्थि तायासीसाणमसज्झं । एत्थंतरम्मि पढियं कालनिवेयएण निण्णासिऊण तिमिरं मोहं च जणस्स संपयं सूरो। नहमज्झत्थो चेट्टाए धम्मकिरियं पवत्तेइ ॥६६७॥ लोकधर्मः, कर्तव्या कुशलसन्ततिः, यतितव्यं परोपकारे अनुवर्तितव्यः कुल क्रमः। एवं चाभ्यस्ते लो धर्भ परिणते एकान्तेन निष्पन्ने पौरुषे प्रतिष्ठिते वंशे ज्ञाते लोकसारे परिणते वयसि अपगतैरुपद्रवैर्गुणभाजनीकृते आत्मनि युक्तं विशुद्धधर्मासेवनम् । ततः शोभनमनुष्टितं कुमारेण । एवमेव भवतः परिणामसुन्दरं भविष्यति । अत्रान्तरे कक्षान्तरगतेन हर्षविशेषतो महता शब्देन जल्पितं सिद्धार्थपुरोहितेन - भो अलं सन्देहेन, अवश्यमेव भविष्यति । अनन्तरं च विजृम्भितो मङ्गलतर्यशब्दः, गुलुगुलितं मत्तहस्तिना, उद्धृष्टो जयजयारवा बन्दिलोकेन । 'अनुकूलः शकुनसंघातः' इति हर्षितो राजा । भणितं च तेन-कुमार! अवश्यमेवैतद् एव भविष्यति, अनुकूलः शकुनसंघातः । अन्यच्च, विशुद्ध धर्म इव कारणमेव त्वं परमसुन्दराणाम् । गृहीतशकुनार्थो हर्षितः कुमारः। भणितं च तेननास्ति ताताशिषामसाध्यम् । अत्रान्तरे पठितं कालनिवेदकेन - निश्यि तिमिरं मोहं च जनस्य साम्प्रतं सूरः । नभोमध्यस्थश्चेष्टया धर्मक्रियां प्रवर्तयति ॥६६७।। - - भी कुशल व्यक्ति को लोकधर्म का अनुसरण करना चाहिए, कुशल सन्तान उत्पन्न करना चाहिए, परोपकार में यत्न करना चाहिए, कुल परम्परा का अनुसरण करना चाहिए। इस प्रकार अभ्यस्त लोकधर्म के परिणत होने, अत्यन्त रूप से पौरुष की निष्पत्ति होने, वंश की प्रतिष्ठा होने और संसार का सार जानने पर वद्धावस्था में उपद्रवों से रहित होने तथा गुणों को आत्मा में पात्र बनाने पर विशुद्ध धर्म का सेवन करना ही युक्त है। अतः कुमार ने ठीक किया । इस तरह तुम्हारा परिणाम सुन्दर होगा।' इसी बीच दूसरे कमरे में गये हुए सिद्धार्थ पुरोहित ने विशेष हर्ष से जोर की आवाज में कहा - 'अरे ! सन्देह करना व्यर्थ है, अवश्य ही होगा।' अनन्तर मंगल बाजों का शब्द बढ़ा, मतवाले हाथी ने दहाड़ा, बन्दीजनों ने 'जय-जय' शब्द की घोषणा की। शकुनों का समूह अनुकूल है-इस प्रकार राजा हर्षित हुआ और उसने कहा- 'कुमार ! 3.वश्य ही यह इस प्रकार होगा, शकुन अनुकूल हैं । दूसरी बात यह है कि विशुद्ध धर्म के समान अत्यधिक कल्याणों के कारण तुम ही हो।' शकुन के अर्थ को ग्रहण कर कुमार हर्षित हुआ और उसने कहा-'पिताजी के आशीर्वादों से कुछ भी असाध्य नहीं है। इसी बीच कालनिवेदक ने पढ़ा - लोगों के अन्धकार और मोह को नाश कर अब सूर्य आकाश के मध्य में स्थित होकर चेष्टा द्वारा धर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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