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[ समराइच्चकहा
अवरहारेणं पविसिऊणमवरुत्तरेण निसण्णा। जोइसिया यंतरिया देवा तह भवणवासी य ॥७६५॥ उत्तरदारेणं पविसिऊण पुन्व॒त्तरेण उ निसण्णा। वेमाणिया सुरवरा नरनारिगणा य संविग्गा ॥७६६॥ अहिनउलमयमयाहिवकुक्कुडमज्जारमाइया सव्वे । ववगयभया निसण्णा पायारवरंतरे बीए ॥ ७६७॥ तियसेहिं वि जाणाई मणिरयणविहूसियाइ रम्माइं। ठवियाइ मणहराइं पायारवरंतरे तइए ॥७६८॥ एवं च निरवसेसं सिढं तत्तो समागएण महं। कल्लाणएण नबरं देवी तत्थेव दिट्ठ ति ॥७६६॥ तत्तो य संपयट्टो जिगवंदणवत्तियाए सयराहं । सिंगारियमुत्तुगं धवलगइंदं समारूढो ॥७७०॥
अपरद्वारेण प्रविश्यापरोत्तरेण निषण्णाः । ज्योतिष्का व्यन्तरा देवा तथा भवनवासिनश्च ॥७६५॥ उत्तरद्वारेण प्रविश्य पूर्वोत्तरेण तु निषण्णाः । वैमानिकाः सुरवरा नरनारीगणाश्च संविग्नाः ॥७६६।। अहिनकुल-मगमगाधिप-कर्क टमार्जारादयः सर्वे । व्यपगतभया निषण्णाः प्राकारवरान्तरे द्वितीये ॥७६७।। त्रिदशैरपि यानानि मणिरत्नविभूषितानि रम्याणि । स्थापितानि मनोहराणि प्राकारवरान्तरे तृतीये ।।७६८॥ एवं च निरवशेष शिष्टं ततः समागतेन मम । कल्याणकेन नवरं देवी तत्रैव दृष्टेति ॥७६९॥ ततश्च संप्रवृत्तो जिनवन्दनप्रत्ययं शीघ्रम् । शङ्गारितमुत्तुङ्ग धवलगजेन्द्रं समारूढः ।। ७७०॥
दिशा में ज्योतिषी, व्यन्तर तथा भवनवासी देव बैठे थे। उत्तर द्वार से प्रविष्ट होकर पूर्वोत्तर दिशा में वैमानिक देव और नरनारीगण (संसार से) विरक्त होकर बैठे थे । सर्प-नेवला, मग-सिंह, मुर्गा-बिल्ली आदि सब भयरहित होकर दूसरे श्रेष्ठ प्राकार के मध्य बैठे थे। देवों ने भी मणि और रत्नों से विभूषित रमणीय यान तीसरे उत्तम प्राकार के बीच रखे थे। इस प्रकार सब शालीन था।
___अनन्तर मेरे आने पर शुभयोग से वहीं देवी दिखाई दी। तब मैं जिनवन्दना के लिए शीघ्र ही शृंगार किये हुए ऊंचे सफेद हाथी पर आरूढ़ हुआ। वाद्यों से दिशाओं का पूर्ण करता हुआ, पालकियों से युक्त उत्तम रथों
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